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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पंजीयनपत्र जलाये जायें

ये तभी जलाये जायेंगे जब [ इस बीच ] सरकार हमारी चार माँगोंको स्वीकार न करेगी।

ईसप मियाँका पत्र

इस सभाके आधारपर श्री ईसप मियाँने श्री स्मट्सको पत्र लिखा है। इसमें बताया गया है कि यदि सरकारका इरादा भारतीय समाजकी माँगें पूरी करनेका न हो, तो यह सूचित कर दिया जाये; क्योंकि अन्यथा हमने अगले रविवारको सार्वजनिक सभा करके प्रमाणपत्रोंको जलाने का निश्चय किया है।[१] ( यह पूरा पत्र इस अंकमें दूसरी जगह देखा जा सकता है। ) यदि इस पत्रका उत्तर सीधा आया और सरकारने बिना किसी शर्तके कानून रद कर दिया, तो फिर शिकायत की कोई बात नहीं रहेगी और पंजीयन प्रमाणपत्र नहीं जलाने पड़ेंगे।

डोकका पत्र

'ट्रान्सवाल लीडर' में श्री डोकका पत्र[२] प्रकाशित हुआ है। वह जानने लायक और जोशीला है। उन्होंने इस पत्रमें भारतीय समाजके संघर्ष के औचित्यको अच्छी तरह स्पष्ट किया है। इस पत्रसे बहुत-से गोरे हमारे पक्षमें हो गये हैं। और बहुतसे दिन-प्रतिदिन होते जाते हैं।

ब्लूमफाँटीनका 'फ्रेंड'

ब्लूमफाँटीनके 'फ्रेंड' पत्रने भी फिर हमारे पक्षमें लिखना आरम्भ कर दिया है। उसने श्री स्मट्सको सलाह दी है कि अब वे झगड़ेको आगे न बढ़ायें।

इस प्रकार श्री स्मट्सका किला चारों तरफसे घिर गया है। उनके पापका घड़ा फूटनेपर आ गया है। इसलिए सम्भव है कि अब अन्त आने में बहुत समय न लगे। किन्तु सत्याग्रहीको बहुत या कम समयका विचार नहीं करना चाहिए। उसके लिए तो उसका सत्य ही सबसे अधिक प्रिय होता है।

सोराबजीका मामला

श्री सोराबजी गिरफ्तार कर लिये गये हैं और बिना जमानत छोड़ दिये गये हैं। शनिवारको उनके मुकदमेकी पेशी थी, किन्तु वह बुधवारके लिए मुल्तवी कर दिया गया। अब श्री सोराबजीपर आरोप प्रवासी कानूनके अन्तर्गत नहीं है, बल्कि खूनी कानूनके अन्तर्गत है। इससे जाहिर होता है कि प्रवासी कानूनकी रूसे श्री सोराबजीके ऊपर कोई मामला नहीं चलाया जा सकता। श्री सोराबजी खूनी कानूनको स्वीकार नहीं करना चाहते और वे ट्रान्सवाल नहीं छोड़ेंगे। इसलिए यदि उन्हें निर्वासनकी सूचना दी गई, तो वे उसे अमान्य करेंगे और जेल जायेंगे। श्री सोराबजी इतवारकी सभामें भी बोले थे और उनके जेल जानेके निर्णय से सबको खुशी हुई थी।[३] श्री सोराबजीके मामलेपर श्री गांधीने अखबारोंको पत्र लिखा है।

 
  1. देखिए "पत्र: उपनिवेश सचिवको", पृष्ठ ३३४-३७।
  2. देखिए परिशिष्ट ७।
  3. देखिए पाद-टिप्पणी २, पृष्ठ ३३४।