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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

न्यायाधीशने कहा कि वे श्री गांधीके तर्कोपर न्यायकी दृष्टिसे विचार करेंगे, किन्तु उन्होंने उनके तर्कको अमान्य कर दिया।

इसके बाद अभियुक्तको पेशी हुई और जिरहकी जानेपर उसने कहा कि मैं दक्षिण आफ्रिका ६ वर्षोसे रहता हूँ, जिसमें से डर्बनमें डेढ़ वर्ष और चार्ल्सटाउनमें साढ़े चार वर्ष रहा हूँ। मैं नेटालके अन्तर्गत चार्ल्सटाउन नगरमें श्री हाजी हासिमकी दूकानमें मुनीम और प्रबन्धक रहा हूँ, मैंने बम्बई प्रदेशके सूरत हाई स्कूलमें अंग्रेजी पढ़ी है और सात साल अंग्रेजी भाषाके माध्यमसे और उससे पहले सात साल देशी भाषाके माध्यमसे शिक्षा प्राप्त की है। मैं ट्रान्सवालमें प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत आया हूँ।

न्यायाधीश: ये उसके अन्तर्गत कैसे आ सकते हैं?

श्री गांधीने कहा: यह बताना मेरा काम है। जब मैं अदालतके सामने तथ्य पेश कर चुकूँगा, तब यह बहस करना मेरा कर्तव्य होगा कि अभियुक्तको प्रवेशका अधिकार था। किन्तु जबतक अदालतमें तथ्य पेश नहीं कर दिये जाते और उचित अवसर आनेपर उनपर ठीक बहस नहीं हो जाती, तबतक इस प्रश्नपर निर्णय देना अदालतके लिए सम्भव नहीं है।

न्यायाधीशने कहा: श्री गांधीको यह सिद्ध करना पड़ेगा कि उनका मुवक्किल उन व्यक्तियोंमें से है जो पंजीयन प्रमाणपत्रकी पाबन्दीसे मुक्त हैं।

श्री गांधीने दलील दी कि उनका मुवक्किल-प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत प्रवेशका अधिकारी है; क्योंकि वह शिक्षित और साधन-सम्पन्न है।

न्यायाधीशने कहा: क्या आपके कहनेका यह अर्थ है कि ऐसा प्रत्येक एशियाई, जो कोई यूरोपीय भाषा लिख और पढ़ सकता है, इस उपनिवेशमें आनेका अधिकारी है?

श्री गांधीने कहा: 'जी हाँ, मेरे कहनेका यही अर्थ है और यदि मुझे अवसर प्रदान किया जायेगा तो मैं अदालतके सामने यही सिद्ध करनेका प्रयत्न करूँगा और बहस करूँगा।

गवाहने आगे कहा: जब मैं इस देशमें आया तब मैं काफी साधन-सम्पन्न था। दक्षिण आफ्रिकी पुलिस दलके सार्जेन्ट मैन्सफील्डने, जो फोक्सरस्टके प्रवासी विभागके अधिकारी थे, मुझसे पूछा था कि मेरे पास कितना पैसा है। मैंने पिछली २२ अप्रैलको सार्जेन्ट मैन्सफील्डसे उपनिवेशमें प्रवेश करने और प्रार्थनापत्र देनेकी लिखित अनुमति पाकर स्वेच्छया पंजीयनके लिए प्रार्थनापत्र दिया था। मेरे पास कई प्रमुख नागरिकोंके प्रमाणपत्र हैं और मैंने उनमें से कुछ अपने प्रार्थनापत्रके सम्बन्धमें श्री चैमनेको भेजे हैं। मैं कल ही इसी प्रकारके अभियोगसे मुक्त किया गया था, जिस प्रकारके अभियोगमें अब फिर अदालतके सामने पेश हूँ। मेरा १९०७ के पंजीयन अधिनियम संख्या २ के अनुसार प्रार्थनापत्र देनेका कोई इरादा नहीं है।[१]

जिरह

जिरहमें उन्होंने कहा: मुझे अधिनियमकी धाराओंकी पूरी-पूरी जानकारी है। मैं जानता हूँ कि पंजीयन प्रमाणपत्र पानेके लिए क्या कदम उठाना चाहिए। मैंने अधिनियमके अन्तर्गत पंजीयनके लिए कोई प्रार्थनापत्र नहीं दिया है और न कोई प्रार्थनापत्र देनेकी मेरी इच्छा

 
  1. देखिए "सोराबजी शापुरजीका मुकदमा---१०", पृष्ठ ३३७-४०।