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सोराबजी शापुरजीका मुकदमा---२

है। मैं न तो कभी प्रार्थनापत्र दूँगा और न ऐसे अ-ब्रिटिश और अपमानजनक अधिनियमसे कोई सम्बन्ध रखूँगा। मैं इस अधिनियमके विरोधमें अपने भाइयोंके साथ भी हूँ। मैं यहाँ केवल इसे परीक्षात्मक मुकदमा बनानेकी दृष्टिसे ही नहीं आया हूँ, बल्कि ट्रान्सवालको अपना देश बनानेके लिए और उसमें रहनेके लिए आया हूँ।। मैं इससे पहले चार्ल्सटाउनमें था और ट्रान्सवालमें इसके पहले कभी नहीं रहा। मेरा ट्रान्सवालमें आनेका अपना इरादा था; मैं किसीकी सलाहसे नहीं आया, बल्कि स्वयं अपनी मर्जीसे आया हूँ। अलबत्ता, मैंने श्री गांधीसे वकीलको हैसियतमें पहले सलाह माँगी थी। मैंने फोक्सरस्टके न्यायाधीशके दफ्तरकी मार्फत जो प्रार्थना-पत्र दिया था, वह अस्वीकृत कर दिया गया था। जबसे मैं जोहानिसबर्गमें आया हूँ, तबसे श्री कामाके साथ मलायी बस्तीमें रहता हूँ। यह सच नहीं है कि ट्रान्सवालमें आनेसे पहले मैं ब्रिटिश भारतीय संघके निरन्तर सम्पर्कमें रहा हूँ।

दुबारा जिरह की जानेपर उन्होंने कहा कि मैं ब्रिटिश प्रजा हूँ और पारसी हूँ।

यहाँ प्रतिवादी पक्षकी बहस समाप्त हो गई।

श्री गांधीने विस्तारसे मुकदमेपर बहस की। पहले उन्होंने यह निवेदन किया कि उनका मुवक्किल प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत वर्जित प्रवासी नहीं है, क्योंकि उसने यह साबित कर दिया है कि वह पर्याप्त साधन-सम्पन्न और शिक्षित है; और यदि वह एशियाई अधिनियमके अन्तर्गत प्रार्थनापत्र देना चाहता तो वर्जित प्रवासी न माना जाता। उन्होंने आगे कहा कि एशियाई अधिनियम केवल उन एशियाइयोंसे सम्बन्धित है जो उपनिवेशमें हैं और जो उपनिवेशमें अधिनियम पास होनेके पहलेसे रहते हैं; प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमके निर्माताओंका इरादा चाहे जो रहा हो, उसके द्वारा, निःसन्देह एक बहुत ही परिवर्तित रूपमें, एशियाई प्रवासका मार्ग खुला रहता है।

न्यायाधीशने श्री गांधीके तर्कोको बहुत सूक्ष्म और योग्यतापूर्ण बताया। उन्होंने उन तर्कोमें जो मुद्दे उठाये गये थे उनका जिक्र किया और कहा कि अभियुक्तने पंजीयनके लिए प्रार्थनापत्र नहीं दिया है, बल्कि वह इस बातमें शान समझता है; और सरकारको चुनौती देता है। उन्होंने अभियुक्तको सात दिनके भीतर उपनिवेशसे चले जानेकी आज्ञा दी।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १८-७-१९०८