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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। जनरल स्मट्स चाहे जो विधान पास करें, मेरा उससे कुछ लेना-देना नहीं है; किन्तु भारतीयोंको उस प्रकारके विधानसे सहमत होनेवाला पक्ष बनानेका मैं जरूर प्रबल विरोध करता हूँ। उन्हें उसका विरोध तथा इस सम्बन्धमें चाहे जिस तरहका आन्दोलन करनेका अधिकार अवश्य मिलना चाहिए। यदि वे उपर्युक्त बातें स्वीकार करनेको राजी हैं, जैसा कि सुबह मुझे अन्दाज हुआ, तो प्रवासी-प्रतिबन्धक संशोधन विधेयक, जिसे उन्होंने मुझे दिखाया, आवश्यक परिवर्तनके साथ पेश किया जा सकता है। यदि वे चाहें तो इसमें शिक्षित एशियाइयोंके प्रवासको रोकनेवाली उपधारा भी जोड़ दें। परिणाम यह होगा कि इस उपधाराके खिलाफ संसदको तथा साम्राज्य सरकारको आवेदनपत्र भेजे जायेंगे, और यदि मैं अपने देशवासियोंको अपने साथ ले जा सका तो निःसन्देह अनाक्रामक प्रतिरोध शुरू हो जायेगा। मैं उन्हें अपने साथ ले जा सकूँगा या नहीं, इस बारेमें मैं अभी इस स्थितिमें नहीं हूँ कि आपको निश्चित तौरपर बता सकूँ। मेरा प्रयत्न निःसन्देह यही होगा, और होना भी अवश्य चाहिए, कि मैं उन्हें वैसा करनेके लिए रजामन्द करूँ। मैंने आपको टेलीफोनपर बताया था कि कल रात श्री यूसुफ मियाँ इस प्रश्नपर कमजोर जान पड़े। उनका खयाल था कि यदि वे तीन बातें स्वीकार कर ली जायें तो हमें सन्तुष्ट हो जाना चाहिए। मेरा उनसे मतभेद था। जब आपका सन्देश पहुँचा उस समय वे कार्यालयमें थे और मैंने इस मुद्देपर उनसे बातचीत की। उन्हें अब अपने विचारोंपर आश्चर्य होता है। और वे सोचते हैं कि यदि ट्रान्सवालके मुट्ठीभर भारतीयोंने शैक्षणिक अयोग्यताको अपनी स्वीकृति दे दी तो वे सारे भारतके अभिशापके भाजन बन जायेंगे। मैं फिर इसे दोहराता हूँ: मुख्य रूपसे स्वीकृति ही सब कुछ [ है ]; न कि वह स्वतन्त्र विधान जिसे कि जनरल स्मट्स पास कराना चाहें। उन्हें हमारे सामने केवल [ आना ] और कहना ही नहीं चाहिए...[१]अधिनियमको जो कि मेरे सामने रखा गया था रद करते हुए वे यह भी देखेंगे कि इस धारापर मुझे आपत्ति है। किन्तु मुझे बिलकुल निश्चय है कि सर्वोच्च न्यायालयमें अपील तथ्योंसे सम्बन्धित मामलोंपर नहीं, बल्कि कानूनी प्रश्नोंपर होनी चाहिए।

किन्तु मैंने जिस अपीलके विषयमें माँग की है वह विचाराधीन प्रार्थनापत्रोंके बारेमें श्री चैमनेके निर्णयसे सम्बन्धित है। उसीके बारेमें तो जनरल स्मट्सने भेंटके समय इनकार किया था। अब मैं समझता हूँ कि वे यह अधिकार देनेके लिए तैयार हैं। मेरे विचारसे यह मामला स्वयंसिद्ध है।

जनरल स्मट्सने कहा कि मैंने प्रत्येक स्वेच्छया पंजीयन प्रमाणपत्रपर मुसलमानोंसे २-२ पौंड लिये हैं। मैंने इसे निन्दनीय असत्य कहा और फिर कहता हूँ। स्पष्ट है कि यह बात भारतीय समाजके किसी शत्रुने उड़ाई है। मैंने जो किया है वह इतना ही है कि स्वेच्छया पंजीयन प्रार्थनापत्रोंके सम्बन्धमें की गई कानूनी कार्रवाईके लिए---हिन्दू हो चाहे मुसलमान---सबसे दो गिनी मेहनताना लिया है। मैंने मुनीमको अपने जरिये दिये गये प्रार्थनापत्रोंकी संख्या बतानेके लिए कहा, और उनकी संख्या २३५ से अधिक नहीं है। इन प्रार्थनापत्रोंके सम्बन्धमें किये गये कार्यका मेहनताना २ गिनीसे अधिक बैठता है। मुझे प्रत्येक प्रार्थीके मामलेकी जाँच अलग-अलग करनी पड़ती थी, फार्म भरने पड़ते थे और फिर एक क्लर्क, सम्बन्धित व्यक्ति के साथ भेजना पड़ता था। बहुत-से मामलोंमें तो मुझे पंजीयन कार्यालयके साथ

 
  1. यहाँ तीन पंक्तियाँ लुप्त हैं।