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२१६.'स्टार' को उत्तर[१]

[ जोहानिसबर्ग ]
जुलाई १६, १९०८

सम्पादक
'स्टार'
महोदय,

आपने कल अपनी टिप्पणियोंमें यह वक्तव्य प्रकाशित किया है कि एशियाई समस्याका हल सम्भव है और आपने बहुत उचित रूपसे कहा है कि यह बात ( अर्थात् शिक्षा सम्बन्धी बात ) यहाँ लागू होनेवाले सर्वसाधारण सिद्धान्तोंकी दृष्टिसे अनिवार्य नहीं मानी जायेगी, क्योंकि शिक्षित भारतीय अपने समाजके बाहर आवश्यक जीविकोपार्जन नहीं कर सकते। मैं आशा करता हूँ कि आपने जो समाचार प्रकाशित किया है वह सही है।

तथापि परिस्थितिको जिस प्रकार मैंने समझा है, वह यह है कि यद्यपि अब सरकार इस अधिनियमको रद करने और युद्धके पहले उपनिवेशके निवासी एशियाइयोंके अधिकारोंको मान्य करनेके लिए तैयार है, फिर भी वह ब्रिटिश भारतीयोंको यह माननेके लिए बाध्य कर रही है कि भारतीयोंका, वे चाहे जितने शिक्षित क्यों न हों, प्रवेश पूर्णतः निषिद्ध रहेगा। आज यह बात कानूनमें नहीं है, जैसा कि श्री सोराबजीके मामलेसे स्पष्ट हो गया है। इसलिए हमसे उपर्युक्त अयोग्यता स्वीकार करनेके लिए कहकर सरकार हमें सामाजिक आत्महत्या करनेको कहती है। यदि यहाँ रहनेवाली एशियाई जनताको पूरा संरक्षण देना है, और यदि उसे इज्जतके साथ देशमें रहने देना है, तो उपनिवेशमें रहनेवाले प्रत्येक व्यक्तिको यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि उसे अपने शिक्षित भाइयोंसे मार्ग-दर्शन और सहायता प्राप्त करनेकी आवश्यकता पड़ेगी। शिक्षासे मेरा अर्थ अंग्रेजी या किसी अन्य यूरोपीय भाषाका सामान्य ज्ञान प्राप्त कर लेना नहीं है, बल्कि उससे मेरा तात्पर्य एक बहुत ऊँचे दर्जेकी संस्कृति है। क्या कोई ऐसी कल्पना करता है कि उपनिवेशके निवासी भारतीय, जिनमें बहुसंख्यक व्यापारी हैं, उन लोगोंके बिना जरा भी आरामके साथ रह सकते हैं जिनका मैंने ऊपर उल्लेख किया है? संसारमें ऐसा कोई ब्रिटिश उपनिवेश नहीं है, जहाँ एशियाई जनताका अधिवास हो और जहाँ युद्धसे पहले रहनेवाले भारतीयोंको साधारण न्याय देनेके पूर्व ऐसे कानूनको स्वीकार करनेकी शर्त लगाई जाती हो। यदि सरकार सोचती है कि वह अलगावकी कठोर नीतिको निभा ले जा सकती है तो वह ऐसा करे; किन्तु साथ-ही-साथ वह दूसरे अधिकारोंको मान्य करे। यदि शिक्षाके प्रश्नपर न्याय हमारे पक्षमें है और हममें पर्याप्त शक्ति है, तो जीत हमारी होगी।

किन्तु आज जो परिस्थिति है उससे मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मैंने और दूसरे भारतीयोंने स्वेच्छया पंजीयन प्रमाणपत्रों और वार्षिक परवानोंसे अपनेको सुरक्षित कर लिया है।

 
  1. इसका मसविदा सम्भवतः गांधीजीने तैयार किया था। यह २५-७-१९०८ के इंडियन ओपिनियनमें "श्री ईसप मियाँकी सफाई" शीर्षकसे प्रकाशित किया गया था।