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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

न लगा। तात्पर्य यह है कि खूनी कानून हमारे लिए बेड़ीके समान है। इस बेड़ीको टूटना ही है। वह बेड़ी-रूप इस कारण है कि उसके आगे झुकनेपर सरकार हमारा जो भी हाल करे वह हमें सहन करना होगा। लेकिन वह बर्दाश्त कैसे होगा? बेड़ीको काट देनेका अर्थ यह हुआ कि सरकार हमारे ऊपर अनुचित कानून लागू करनेसे बाज आये और हम लोगोंकी रायका ध्यान रखे। क्या ऐसा करनेके लिए वह वचन-बद्ध है? [ प्रश्नका उत्तर ] हाँ भी है और ना भी। वह वचन-बद्ध होती है, और है, [ किन्तु ] तभीतक जबतक हम सरकारके विरुद्ध सत्याग्रहकी तलवार लेकर लड़ने को तैयार हैं। यदि हम सत्याग्रहकी लड़ाईको भूल जाते हैं तो वह वचन बद्ध नहीं है।

सरकार तीन पौंडी पंजीयनवाले व्यक्तियोंके अधिकार सुरक्षित रखनेको राजी है। सर्वोच्च न्यायालयमें अपील दायर करनेका हक भी देनेको कहती है।

लेकिन वह शिक्षित भारतीयोंको नहीं आने दे रही है---इसका क्या मतलब हुआ? बहुतेरे समझते हैं कि शिक्षित भारतीयोंका अर्थ है कारकुन। यह भूल है। कारकुन आयें या न आयें, यह अलग बात है। परन्तु वकील, डॉक्टर न आ सकें, यह सहन नहीं किया जा सकता। इसका भेद तो कानून रद करके भारतीयोंको खुश करना और उसके उपरान्त उन्हें मौतके घाट उतार देना है।

व्यापारी या किसानकी अपेक्षा वकील या डॉक्टरका महत्त्व अधिक नहीं हैं। लेकिन व्यापारीका काम व्यापार करना है। वकीलका काम मुकदमा लड़ना और लड़वाना है। संसारमें एक भी देश ऐसा नहीं है जिसमें कोई समाज वकीलों और डॉक्टरोंके बिना उन्नति कर सका हो। व्यापारी, जागीरदार और कृषक धड़ हैं; वकील इत्यादि समाजके हाथ हैं। धड़ मुखिया तो हैं, परन्तु हाथके बिना अपंग हो बैठता है। इसलिए शिक्षित भारतीयोंके बारेमें बहुत-कुछ विचार करना है। ऐसा कहा जा सकता है कि वर्तमान संघर्ष उन्हींके लिए है...और बात है भी ऐसी ही। यदि शिक्षित भारतीयोंको पृथक् रखा जाता है तो भारतीय समाज सरकारको यह आश्वासन कैसे दे सकता है कि हम संघर्ष बन्द कर देंगे? यदि समाज ऐसी भूल करेगा तो भारत समाजकी भर्त्सना करेगा। परन्तु यदि वह इस मामलेको लेकर लड़ेगा, तो भारत उसका स्वागत करेगा।

इसलिए इस संघर्षका उद्देश्य कानूनको समाप्त कर देना ही नहीं है; यह तो गोरों और कालोंके बीचका संघर्ष है। गोरे हम लोगोंपर सवारी गाँठनेकी ख्वाहिश रखते हैं। हमें दासतामें ही जकड़े रहना चाहते हैं। परन्तु हम उनकी बराबरीका दर्जा चाहते हैं।

संघर्षका यह रहस्य प्रत्येक भारतीय अपने मनमें अंकित कर रखे तब ही सत्याग्रह सार्थक हुआ कहा जायेगा। सत्याग्रह जैसी तलवार मुट्ठी-भर भारतीयोंके ट्रान्सवालमें निवास करने रूपी घास काटनेमें नहीं चलानी है, बल्कि गोरे लोगोंमें पैठे हुए भारी तिरस्कार रूपी पत्थरको काटनेमें इस्तेमाल करनी है। यह काम वीरताके बिना होनेवाला नहीं है। यदि ट्रान्सवालमें थोड़े भी बहादुर भारतीय निकल आयें तो इतना प्राप्त हो ही जायेगा, और उनकी जयका घोष सदा गूँजता रहेगा।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १८-७-१९०८