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जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

यदि सारे भारतीय कानून स्वीकार करनेके लिए राजी ही हों, तो फिर उनपर कानून लागू करना उचित ही है।

किन्तु मेरी मान्यता है कि कानूनको स्वीकार करनेके लिए थोड़े ही भारतीय राजी हैं। बारबर्टन, क्रिस्टिआना, फोक्सरस्ट, वेरीनिगिंग, नाइलस्ट्रम, हाइडेलबर्ग, जर्मिस्टन, इत्यादि अनेक स्थानोंसे पत्र आये हैं कि भारतीय दृढ़ हैं और ऊपरके अधिकारोंके लिए लड़ेंगे। इन स्थानोंपर बहुत-से भारतीयोंने परवाने नहीं लिये हैं, और न लेंगे। जबतक ऐसा उत्साह है, तबतक भारतीय हार नहीं सकते, फिर कोई जनरल स्मट्ससे चाहे जो कहे।

सोराबजी

श्री सोराबजीने खूब किया। वे चार्ल्सटाउनसे खासतौरसे जेल जानेके लिए ही आये हैं। यह अंक लोगोंके हाथमें पहुँचने तक सम्भव है कि वे जेलमें जा विराजें। सभी लोग यह समझ लें कि उन्हें जेलमें भेजकर भारतीय समाजको ऊपरकी बातोंमें से एक भी बात नहीं छोड़नी चाहिए।

सार्वजनिक सभा

रविवारको सार्वजनिक सभा होगी। इसमें अभी पंजीयनपत्र नहीं जलाने हैं। अनेक अफवाहें उड़ रही हैं, इसलिए समझदारीका रास्ता यही है कि जनरल स्मट्स जो कानून बनानेवाले हैं उसको वे प्रकाशित कर दें तभी हम पंजीयन प्रमाणपत्र जलायें और इस बीच तैयारी करते रहें। ऐसा भय माननेका कारण नहीं है कि हम प्रतीक्षा करेंगे, तो वे धोखा देंगे। धोखा इस तरह नहीं दिया जा सकता। सत्याग्रही धोखा खाता ही नहीं, क्योंकि वह दूसरेके सहारे नहीं लड़ता। कानून प्रकाशित कर दिया जाये तब प्रमाणपत्रोंकी होली की जा सकती है। कानून 'गजट' में प्रकाशित होगा, संसदमें उसपर चर्चा होगी और विलायतमें उसपर मंजूरी मिलेगी, तभी वह अमलमें आयेगा। इस बीच हम लोग अपनी तैयारी करते रह सकते हैं। किन्तु ऐसे प्रत्येक भारतीयको, जिसे पूरा उत्साह है, लाजिम है कि वह अपना पंजीयन प्रमाणपत्र ब्रिटिश भारतीय संघको तुरन्त भेज दे।

पैसेकी कमी

इस संघर्षमें बहुत पैसेकी जरूरत नहीं है। किन्तु फिर भी थोड़ा-बहुत तो चाहिए ही। अबतक संघकी पूँजी लगभग समाप्त हो चुकी है। इसलिए जितने तार विलायत और भारत भेजे जाने चाहिए, उतने नहीं भेजे जाते। इसलिए प्रत्येक समिति और प्रत्येक भारतीयसे जितना बने, उतना पैसा संघको भेजना चाहिए। वारबर्टनके भारतीयोंने उत्साहके तार और पत्र भेजे; इतना ही नहीं, बल्कि १० पौंडकी हुंडी भी भेजी है।

ईसप मियाँ फेरीवालोंमें

मंगलवारकी रातको श्री गांधीको अलग रखकर श्री ईसप मियाँने स्वयं एक सभा बुलाई। उसमें लगभग २०० भारतीय उपस्थित थे। सभामें बड़े जोशके साथ निश्चय किया गया कि शिक्षित भारतीय ट्रान्सवालमें न आयें, इसकी स्वीकृति भारतीय कभी नहीं दे सकते। संघर्षको पूरी तत्परताके साथ चलानेके लिए श्री ईसप मियाँने स्वयं स्वेच्छापूर्वक पंजीयन प्रमाणपत्र लिया है। उन्हें व्यापारका परवाना मिल चुका है। किन्तु फिर भी उसके संरक्षणका लाभ न लेकर श्री ईसप मियाँने फेरोका परवाना माँगा। अँगूठोंकी छाप न देनेके कारण उन्हें परवाना नहीं दिया गया और अब श्री ईसप मियाँ बिना परवानेके फेरी लगायेंगे और बड़े-बड़े गोरोंके घर फल