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सर्वोदय [९]

लिए अथवा अच्छा काम करनेके लिए एक पल भी नहीं मिलता। अमीरोंको देखकर वे भी अमीर बनना चाहते हैं। अमीर नहीं बन पाते, इस कारण वे कुढ़ते हैं---क्रोधित होते हैं। फिर अपना होश गँवा देते हैं और जब देखते हैं कि ठीक रास्तेसे धन नहीं मिल सकता तो अन्तमें धोखेबाजीसे धनोपार्जन करनेका व्यर्थ प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार श्रम और धन दोनों निष्फल जाते हैं अथवा धोखेबाजी के प्रसारमें प्रयुक्त होते हैं।

वास्तवमें सच्चा परिश्रम वह है जिससे उपयोगी वस्तु पैदा हो। उपयोगी वस्तु वह है जिससे मनुष्य-जातिका भरण-पोषण हो। भरण-पोषण वह है जिससे मनुष्यको पूरा खाने और पहनने-ओढ़ने को मिले, ताकि वह नीतिके मार्गका अनुसरण करता हुआ जीवित रहे और जबतक जिये सत्कर्म करता रहे। इस दृष्टिसे देखें तो जो बड़े बड़े कारखाने शुरू किये जा रहे हैं, उन्हें निकम्मा माना जाना चाहिए। कारखाने खोलकर धनवान बननेका रास्ता अख्तियार करना पाप-कर्म जैसा हो सकता है। धन पैदा करनेवाले बहुत मिलते हैं, परन्तु ठीक तरहसे उसका उपयोग करनेवाले थोड़े ही हैं। पैसा पैदा करनेसे यदि प्रजाका नाश होता हो, तो ऐसा पैसा किसी कामका नहीं है। परन्तु आज जो करोड़पति लोग हैं वे बड़ी-बड़ी और अनीतिपूर्ण लड़ाइयोंका कारण बन गये हैं। इस जमानेकी बहुतेरी लड़ाइयोंका कारण धनका लोभ मालूम होता है।

लोग ऐसा कहते पाये गये हैं कि दूसरोंको सुधारनेके लिए ज्ञान देना सम्भव नहीं है। इसलिए जैसा ठीक लगे वैसे रहें और धन इकट्ठा करें। ऐसा कहनेवाले नीतिका पालन नहीं करते हैं। क्योंकि जो व्यक्ति नीतिका अनुसरण करता है और लोभमें नहीं फँसता, वह अपना मन स्थिर रखता है, स्वयं ठीक मार्गसे विचलित नहीं होता और अपने कर्मके द्वारा ही दूसरोंपर प्रभाव डालता है। जिनको लेकर प्रजा बनती है, वे खुद जबतक नीतिके नियमोंका पालन न करेंगे, तबतक प्रजा नीतिवान कैसे हो सकती है? हम खुद अपना चलन मनमाने ढंगका रखें और अपने पड़ोसीकी अनीतिके लिए उसके दोष निकालें---इससे भला अच्छा परिणाम कैसे निकल सकता है?

इस तरह सोचनेसे स्पष्ट हो जाता है कि पैसा तो साधनमात्र है और उसके द्वारा सुख और दुःख दोनों प्राप्त होते हैं। अगर वह अच्छे आदमीके हाथ पड़ जाता है, तो उससे खेत जोते जाते हैं और अनाज उपजाया जाता है। किसान लोग निर्दोष मजदूरी करके सन्तोष पाते हैं और प्रजा सुखी रहती है। खराब आदमियोंके हाथमें धन आनेपर उससे गोला-बारूद जैसी चीजें बनती हैं और मनुष्योंका सत्यानाश होता है। गोला-बारूद बनानेवाले, और वे जिनपर वह काममें लाया जाता है--- दोनों ही दुःखी होते हैं। जिस प्रजामें नीति हैं, वह प्रजा दौलतमन्द है। इसलिए हम देख सकते हैं कि सच्चे मनुष्य ही सच्ची दौलत हैं। यह जमाना मौज उड़ानेका जमाना नहीं है। प्रत्येक मनुष्यको यथाशक्ति मेहनत-मजदूरी करनी है। पहले दी हुई मिसालोंमें हम देख चुके हैं कि जहाँ एक आदमी बीमार और इसलिए बेकार रहता है, वहाँ दूसरेको दुगना श्रम करना पड़ता है।[१] इंग्लैंडमें जो भुखमरी फैली हुई है, उसका कारण यही है। चन्द लोगोंके हाथोंमें धन जमा हो जानेसे वे उपयोगी काम नहीं करते। इस कारण उनके वास्ते दूसरोंको मजदूरी करनी पड़ती है। यह मजदूरी उपयोगी न होनेके कारण मजदूरी करनेवालोंको कोई लाभ नहीं होता। ऐसा होनेसे प्रजाकी पूँजी घटती

 
  1. देखिए "सर्वोदय [६]", पृष्ठ २९४-९६।