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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। इसलिए यद्यपि ऊपरसे ऐसा मालूम होता है कि लोगोंको काम मिल रहा है, भीतरसे देखनेपर ज्ञात होता है कि बहुतोंको बेकार बैठे रहना पड़ता है। इतना ही नहीं; ईर्ष्या पैदा होती है, असन्तोषकी जड़ें जमती हैं और अन्तमें धनी और गरीब, मालिक और मजदूर, दोनों अपनी मर्यादा छोड़ देते हैं। जिस तरह बिल्ली और चूहेमें सदा अनबन रहती है, उसी तरह धनी और गरीबमें, मालिक और मजदूरमें वैर-भाव पैदा हो जाता है और मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता, पशु बन जाता है।

सारांश

महान रस्किनकी पुस्तकका सारांश अब हम पूरा कर चुके हैं। यह लेखमाला बहुत-से पाठकोंको शुष्क जान पड़ेगी, तो भी जिन्होंने इसे पढ़ा है, उनसे हम इसे पुनः पढ़ जानेकी सिफारिश करते हैं। 'इंडियन ओपिनियन' के सब पाठक उसपर विचार करके उसके मुताबिक चलने लग जायें, ऐसी आशा रखना तो ज्यादा माना जायेगा। लेकिन यदि थोड़ेसे पाठक भी उसको अच्छी तरह पढ़ कर उसका सार निकालेंगे तो मैं अपना परिश्रम सफल मानूँगा। कदाचित् ऐसा न हो तो भी, जैसा कि रस्किनने अन्तिम प्रकरणमें सूचित किया है, मैंने अपना फर्ज अदा कर दिया; और उसीमें उसके फलका समावेश हो गया है। अतएव मुझे तो सदा सन्तोष ही है।

रस्किनने अपने बन्धुओं---अंग्रेजों---के लिए जो लिखा है, वह अंग्रेजोंपर जितना लागू होता है, उसकी अपेक्षा भारतीयोंपर हजार गुना अधिक लागू होता है। भारतमें नये विचार फैल रहे हैं। आजकलके पश्चिमी शिक्षा पाये हुए जवानोंमें जोश उमड़ा है, यह तो ठीक है। परन्तु यदि जोशका अच्छा उपयोग किया जायेगा तो परिणाम अच्छा निकलेगा और गलत उपयोग किया गया, तो परिणाम बुरा आये बिना न रहेगा। एक ओरसे यह आवाज आ रही है कि स्वराज्य प्राप्त करना चाहिए। दूसरी ओरसे यह आवाज आ रही है कि विलायतकी तरह कारखाने खोलकर झटपट पैसा जमा करना चाहिए।

स्वराज्य क्या है---यह हम शायद ही समझते होंगे। नेटालमें स्वराज्य है, फिर भी हम कहा करते हैं कि यदि हम नेटालके जैसा ही करनेकी इच्छा रखते हैं तो वह स्वराज्य नरक-राज्यके समान होगा। वे वतनियोंको कुचलते हैं, भारतीयोंको मिटाते हैं और स्वार्थमें अन्धे होकर स्वार्थ-राज्यका उपयोग कर रहे हैं। अगर वतनी और भारतीय नेटालसे चले जायें तो वे आपसमें लड़कर समाप्त हो जायेंगे।

तो क्या हम ट्रान्सवालकी तरहका स्वराज्य लेंगे? जनरल स्मट्स उनके अगुओंमें से एक हैं---वह अपने लिखित अथवा जबानी दिये हुए वचनोंका पालन नहीं करते। कहते कुछ हैं और करते कुछ। अंग्रेज उनसे ऊब उठे हैं। उन्होंने पैसे बचानेके बहाने अंग्रेज सिपाहियोंकी जीविकापर प्रहार किया है और वे उनके स्थानपर डचोंको रख रहे हैं। हम नहीं मानते कि इससे अन्तमें डच भी सुखी हो सकेंगे। जो लोग स्वार्थपर दृष्टि रखते हैं, वे पराई प्रजाको लूटनेके पश्चात् अपनी प्रजाको लूटनेके लिए आसानीसे तैयार हो जायेंगे।

दुनियापर चारों ओर दृष्टि डालनेसे हम देख सकेंगे कि स्वराज्यके नामसे पहचाना जानेवाला राज्य प्रजाकी खुशहाली या उसके सुखके लिए पर्याप्त नहीं है। एक आसान उदाहरणसे यह बात स्पष्ट हो जायेगी। लुटेरोंकी टोलीमें स्वराज्य हो तो क्या नतीजा आयेगा, इसकी कल्पना सब कर सकते हैं। वे तो अन्तमें तभी सुखी हो सकते हैं जब उनपर ऐसे