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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अन्तमें हिन्दुस्तानको स्वराज्य मिले, ऐसी सब भारतीयोंकी पुकार है और वह सही है। परन्तु उसको नीतिके मार्गसे हासिल करना है। वह सच्चा स्वराज्य होना चाहिए। और वह विनाशक उपायोंसे या कारखाने खोलनेसे नहीं मिलेगा। उद्योग चाहिए परन्तु सही मार्गसे। हिन्दुस्तानकी भूमि किसी जमानेमें सुवर्णभूमि मानी जाती थी, क्योंकि भारतीय लोग सुवर्ण-रूप थे; भूमि तो वहीकी-वही है, लेकिन लोग बदल गये हैं। इसलिए वह भूमि वीरान-सी हो गई है। उसे पुनः सुवर्ण बनानेके लिए हमें स्वयं अपने सद्गुणोंसे सुवर्ण बनना होगा। उसका पारस-मणि दो अक्षरोंमें रहा है और वह है "सत्य"। इसलिए अगर हरएक भारतीय सत्यका ही आग्रह रखेगा, तो भारतको घर बैठे स्वराज्य मिलेगा।

यही रस्किनके लिखनेका सारांश है।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १८-७-१९०८

२२०. पत्र:'स्टार' को[१]

जोहानिसबर्ग,
जुलाई १८, १९०८

सम्पादक
'स्टार'
महोदय,

आपके मुखबिरका कहना है कि ट्रान्सवालके मुसलमान एशियाई संघर्षको फिरसे शुरू करनेके लिए, अपने अन्य देशभाइयोंकी तरह, जो व्यापारिक परवाने जारी किये जा चुके हैं। उनको नष्ट करने या काममें न लानेकी सम्भावित सलाह नहीं मानेंगे। जान पड़ता है, यह विचार उसकी इच्छासे उत्पन्न हुआ है।

मुझे ट्रान्सवालके हमीदिया इस्लामिया अंजुमनका प्रतिनिधित्व करनेका गौरव प्राप्त है, और मैं ऐसे एक भी मुसलमानको नहीं जानता जो इस विषयमें भिन्न मत रखता हो। उन्हें भी भारत और अपने शिक्षित देशभाइयोंकी प्रतिष्ठा उतनी ही प्यारी है, जितनी कि अन्य भारतीयोंको। सच तो यह है कि मेरे सहधर्मियोंको एशियाई कानूनके प्रति दूसरे भारतीयोंकी अपेक्षा अधिक प्रबल आपत्ति है। इसका सीधा-सादा कारण यह है कि उक्त कानून इस्लामपर प्रत्यक्ष रूपसे आघात करता है, और मुसलमानोंके खलीफा तुर्कीके महामहिम सुल्तानका जान-बूझकर अपमान करता है--उन तुर्कीके सुल्तानका, जो आध्यात्मिक बातोंमें उसी तरह इस्लामके प्रधान हैं, जैसे दुनियावी मामलोंमें महामहिम सम्राट् ब्रिटिश साम्राज्यके नागरिकोंके मुखिया हैं।

तीन मुसलमानोंने परवाना अधिकारीको अँगूठेके निशान दिये, उसका इसके सिवा कोई मतलब नहीं है कि उन्हें नहीं मालूम था कि वे क्या कर रहे हैं। भारतीय समाजने स्वेच्छासे

 
  1. अनुमानतः इसका मसविदा गांधीजीने तैयार किया था। यह पत्र २५-७-१९०८ के इंडियन ओपिनियनमें "मुसलमानोंकी स्थिति" शीर्षकसे प्रकाशित किया गया था।