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सोराबजी शापुरजीका मुकदमा---३

अदालतको सम्बोधित करते हुए श्री गांधीने कहा, मैं न्यायाधीश महोदयका ध्यान इस बातकी तरफ दिलाना चाहता हूँ कि ट्रान्सवालका यह संघर्ष ब्रिटिश भारतीयोंके लिए बहुत भीषण साबित होनेवाला है। और इस अभियोगके सम्बन्धमें बहुत-से भारतीय, जो अदालतके अन्दर आनेके लिए बाहर इन्तजार कर रहे हैं, बुरी तरह इधर-उधर ढकेले गये हैं और उनपर हमला भी किया गया है।[१]

न्यायाधीश: मैं इस बारेमें कुछ नहीं जानता और न मैं एकपक्षीय बातको स्वीकारकर सकता हूँ। इस समय अदालतमें इतनी भीड़ है कि काम करनेमें कठिनाई हो रही है।

श्री गांधी: यह सही है, परन्तु बाहर बहुत अधिक लोग हैं।

न्यायाधीश: अदालतके कमरेमें तो कुछ ही लोग आ सकते हैं।

श्री गांधी: यह प्रश्न ठीक व्यवस्था करनेका है। अदालतकी इमारत आपके अधिकार-क्षेत्रमें है। और मैं समझता हूँ कि मुझे इस बारेमें अपनी बात कहने दी जायेगी।

न्यायाधीश: मैं तो यही कह सकता हूँ कि अदालतका कमरा बहुत अधिक भर गया है।

इसके बाद श्री गांधीने मामलेको लिया। उन्होंने कहा: यह मामला बहुत सीधा है। ( न्यायाधीश: "बहुत सीधा। ") मैं न्यायाधीशका ध्यान इस बातकी तरफ दिलाना चाहता हूँ कि मेरे मुवक्किल सही या गलत तौरपर मानते हैं कि उनके लिए उपनिवेशमें रहना एक सिद्धान्तका सवाल है। उनका दावा है कि उन्हें प्रवासी-प्रतिबन्धक विधेयकके अन्तर्गत उपनिवेशमें रहनेका अधिकार है। वे उपनिवेशसे नहीं गये हैं और उन्होंने अदालतमें कहा है कि वे सम्भवतः उस निर्देशको नहीं मान सकते जो एशियाई संशोधन विधेयकके अन्तर्गत निकाला गया है। अभियुक्त सिद्धान्तके लिए कष्ट सहना चाहते हैं। अदालतकी आज्ञा और अपनी सदसद्विवेक बुद्धि, इन दोनोंके बीच उन्होंने सदसद्विवेक बुद्धिका अनुसरण करना पसन्द किया है।

न्यायाधीश: एक महीने की कड़ी कैद।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २५-७-१९०८
 
  1. इंडियन ओपिनियन (२५-७-१९०८) में छपे एक विशेष समाचारके अनुसार, जो भारतीय अदालतके अन्दर जाना चाहते थे, उनके साथ पुलिसने "किसी उत्तेजनाके बिना" पशुवत् व्यवहार किया था। श्री जी० के० देसाईको एक सिपाहीने, जिसका नाम वे लिख रहे थे, मुँहपर जोरसे घूँसा मारा था। पुलिस कमिश्नरको पुलिसके इस हमलेके सम्बन्धमें जिन लोगोंने हलफिया बयान दिये उनमें सर्वोच्च न्यायालयके न्यायवादी श्री एच० एस० एल० पोलक भी थे।