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भेंट : 'स्टार' को

पाँच वर्ष में १,५०० लोगोंपर मुकदमे चलाये गये हैं; इससे प्रकट होता है कि भारतीयोंका तर्क ठीक है; अर्थात् जब कभी प्रयत्न किया गया है, शान्ति-रक्षा अध्यादेश उसका सामना करने के लिए पर्याप्त सिद्ध हुआ है। यह भी स्मरण रखा जाना चाहिए कि इन मुकदमोंमें से ज्यादातर सीमान्तपर उन लोगोंसे सम्बन्धित थे जो प्रवेश करनेका प्रयत्न कर रहे थे, किन्तु असफल हुए थे। यह चर्चा करना शायद अच्छा हो कि १५ नवम्बर १९०२ और २८ फरवरी १९०३ के बीच ५६३ लोगोंको सजायें दी गईं। लोगों को यह भी याद होना चाहिए कि युद्ध समाप्तिकी घोषणा के तुरन्त बाद यद्यपि शान्ति-रक्षा अध्यादेश मौजूद था, फिर भी लोग स्वतन्त्रतापूर्वक आये। ऐसे ही भारतीय भी आये, और उनको बिलकुल तंग नहीं किया गया। जब शरणार्थी बड़ी संख्या में आने लगे तब ये निर्देश भेजे गये कि किसी भी भारतीयको परवानेके बिना न आने दिया जाये। उन दिनोंमें जो मुकदमे चलाये गये उनका कारण यही था। यह बिलकुल प्रत्यक्ष है कि बेचारे भारतीयोंने कोई धोखाधड़ी नहीं की, बल्कि वे केवल अज्ञानमें थे। कुछ भी हो, लड़ाईसे पहले यहाँ जो भारतीय रहते थे उनकी संख्या १५,००० थी। शान्ति-रक्षा अध्यादेश के अन्तर्गत ब्रिटिश भारतीयोंको १३,००० परवाने दिये गये हैं। इसलिए हम अभी उस संख्या तक नहीं पहुँचे हैं जो लड़ाईसे पूर्व देशमें थी।

अँगुलियोंके निशान

यह पूछा जानेपर कि क्या उन्हें अँगुलियोंके निशानों के बारेमें कुछ और कहना है, श्री गांधीने कहा :

जनरल स्मट्सने इस प्रणालीका उल्लेख करते समय न्याय नहीं किया है। वे जानते थे कि अँगुलियोंकी छाप मुख्य आपत्ति कभी नहीं रही है। सब अँगुलियोंकी छाप निःसन्देह झगड़ेका कारण होगी, क्योंकि हेनरीकी पुस्तकके अनुसार, जिसपर जनरल स्मट्स निर्भर रहे हैं, अँगुलियोंकी छाप केवल उन्हीं अपराधियोंसे लेनी आवश्यक होती है जो अपनी शिनाख्त लगातार छिपाते हैं और इसलिए जिनका वर्गीकरण जरूरी होता है। पुस्तकमें स्पष्ट बताया गया है कि शिनाख्तके लिए अँगूठोंके निशान बिलकुल काफी होते हैं। यदि कोई भारतीय अपनी शिनाख्त छिपानेका साहस करे तो वह तत्काल निषिद्ध प्रवासी हो जायेगा, क्योंकि उसका नाम प्रवासियोंकी सूची में न होगा। प्रवासीका लाभ इसमें है कि वह ऐसा सिद्ध करनेकी पूरी सुविधा दे कि वही अधिकारी व्यक्ति है।

मुख्य आपत्ति

अधिनियम के विरुद्ध मुख्य आपत्तियाँ ये हैं कि यह एक ऐसे आरोपके आधारपर बनाया गया है जो सिद्ध नहीं हुआ है। यह एक अपमानजनक प्रकारके वर्गीय कानूनके निर्माणका प्रयत्न है और भारतीय समाजने अपने-आपको, सही या गलत, बहुत सोच-विचारके बाद इसके आगे न झुकनेकी गम्भीर शपथसे बाँध लिया है।' इन सब बातोंसे स्पष्ट रूपसे प्रकट हो जाता है कि सरकार और पंजीयन अधिनियमसे प्रभावित जातिके बीच पूरी गलतफहमी है। हम अपने विरुद्ध लगाये गये आरोपोंका खण्डन करते हैं। हमने बहुत बार सरकारसे नम्रतापूर्वक अदालती जाँच' करवाने की प्रार्थना की है। निश्चय ही अब भी इन आरोपोंकी सत्यता सिद्ध

१. देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ४३४ पर सितम्बर १९०६ की आम सभामें पास प्रस्ताव संख्या ४।

२. देखिए खण्ड ६, पृष्ठ १, ३, ६, ५७, १२७ आदि।