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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हैं, भारतका सम्मान खतरेमें है। अगर खड़े होकर उसका सही मुकाबला नहीं किया गया तो वे अपना आत्मसम्मान खो बैठेंगे---और वह मुकाबला भी किसी हथियारसे नहीं वरन् विशुद्धतम ढंगसे। अपनी आत्मरक्षा के लिए हमने जो विशुद्धतम अस्त्र ढूँढ निकाला है, वह है अनाक्रामक प्रतिरोधका अस्त्र। इसका अर्थ है, हम जिस कानूनको मनुष्य होनेके नाते मान्य नहीं कर सकते, उसको भंग करनेके लिए सरकार हमें जेलका दण्ड या जो भी दण्ड दे, उसे हम स्वीकार करेंगे। ब्रिटिश भारतीय संघ तथा हमीदिया इस्लामिया अंजुमनको जो तार प्राप्त हुए हैं वे प्रिटोरिया, डर्बन, फॉर्चूना, वॉर्मबाथ्स, फोक्सरस्ट, अरमीलो, पोचेफ्स्ट्रूम, जीरस्ट, क्लार्क्सडॉर्प, स्टैंडर्टन, मिडेलबर्ग, सैलिसबरी, क्रिश्चियाना, रस्टेनबर्ग, किम्बरले, नाइल्स्ट्रम, रूडीपूर्ट, लिखतनवर्ग, लीडेनबर्ग, वेरीनिगिंग, पीटर्सबर्ग, वेंटर्सडॉर्प, हाइडेलबर्ग, केप टाउन तथा स्प्रिंग्ससे आये हैं। मेरा तो खयाल है कि कार्यालयमें अभी और भी तार होंगे। अब मैं कुछ तार पढ़कर सुनाऊँगा। सभी तारोंका आशय ब्रिटिश भारतीय संघके पक्षमें तथा उपर्युक्त सभी स्थानोंमें कारोबार बन्द रखनेके निर्णयके प्रति सहानुभूति और समर्थन प्रकट करना है।

[ तब श्री गांधीने तार पढ़कर सुनाये। ]

इन तारोंसे प्रकट होता है कि ट्रान्सवालमें भारतीय सर्वथा एकमत हैं। अध्यक्ष महोदयकी जेल-यात्रासे जाहिर होता है कि मुसलमानों तथा हिन्दुओंके बीच कोई मतभेद नहीं है, और यह देखते हुए कि जिस मुसीबतसे आज समाजका एक हिस्सा घिरा हुआ है उससे दूसरे हिस्से भी घिरे हुए हैं, दक्षिण आफ्रिकामें रहनेवाली भारतकी सभी जातियाँ आज एक सर्वसामान्य उद्देश्यके लिए संगठित, और भलीभाँति संगठित हो गई हैं। सज्जनो, हमारी अपनी स्थिति बिलकुल स्पष्ट है। हमारे मित्रोंने हमें सलाह दी है, हमसे अनुरोध किया है कि हम अभी प्रतीक्षा करें, कोई कड़ी कार्रवाई न करें, और कोई ऐसा कदम न उठायें जिसका निराकरण आगे चलकर नहीं हो सके। इस सलाहका मतलब मेरी समझमें कतई नहीं आता। मैं यह जानता हूँ कि जबतक हमें ठीक-ठीक यह नहीं मालूम हो जाता कि सरकार कौन-सा कानून पास करना चाहती है, तबतक पंजीयन प्रमाणपत्र जलानेके प्रश्नके बारेमें अन्तिम रूपसे निर्णय नहीं करना चाहिए। इससे आगे जाना समाजके लिए असम्भव है। सरकारने स्वेच्छया पंजीयन प्रमाणपत्र लेनेवालों तथा उन लोगोंके बीच, जो अब इस देशको वापस आ रहे हैं और वापस आनेके हकदार हैं, भेद किया है। सरकार उनसे कानूनके आगे झुकने को कहती है। इन लोगोंके लिए ऐसा कुछ करना सर्वथा असम्भव है, और विशेषकर तब, जबकि समझौतेमें उनके अधिकारोंको सुरक्षा प्रदान की गई है। तब इन लोगोंको क्या करना है? क्या जबतक इन्हें पंजीयन प्रमाणपत्र नहीं मिलते, ये व्यापार न करें? क्या इन्हें अपने साथी देशभाइयोंकी दयापर जीना है? मैं मानता हूँ कि यह सर्वथा असम्भव है। तब इन लोगोंको ईमानदारीसे अपनी जीविका अर्जित करनी है, और ब्रिटिश भारतीय संघके लिए इन लोगोंको जो एकमात्र सलाह देना सम्भव था वह यह है कि परवाना अधिकारी द्वारा परवाने देनेसे इनकार करनेपर भी ये व्यापार करें।[१] फेरीवालों और दुकानदारोंकी भी, जिनके परवानोंकी अवधि ३० जूनको समाप्त हो गई, यही दशा है। अब उनसे कहा जा रहा है कि, जहाँतक परवानोंका सवाल है, वे एशियाई अधिनियमको स्वीकार करेंगे तभी उन्हें, परवाने जारी किये जायेंगे। तब क्या उन्हें हाथपर हाथ धरे बैठे रहना है? क्या वे तबतक व्यापार नहीं करें, जबतक

 
  1. देखिए, "जोहानिसबर्गकी चिट्ठी", पृष्ठ ३२१-२४।