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भाषण: सार्वजनिक सभामें

कि सरकार इस सम्बन्धमें कोई कानून नहीं बना लेती? प्रतीक्षा हम नहीं कर रहे हैं और न कर ही सकते हैं। हमारे लिए ऐसा कोई रवैया अपनाना सर्वथा असम्भव है। हम ऐसा कोई कदम नहीं उठा रहे हैं, जो बदला न जा सके, लेकिन हम ऐसे हर उपायसे काम ले रहे हैं, जो हमारी आत्म-रक्षाके लिए अनिवार्य है। अगर हमें इस देशमें सच्चे नागरिकोंकी तरह रहना है, अगर हमें ईमानदारीसे अपनी जीविका अर्जित करनी है, तो यह कतई आवश्यक है कि हम अपने धन्धे चलाते रहें। इन धन्धोंके लिए जरूरत है परवानोंकी। अगर सरकार ये परवाने जारी नहीं करती तो हमारे लिए इनके बिना व्यापार करना जरूरी है। कुछ फेरीवाले परवाने ले चुके हैं। मैं समझता हूँ, ३०० लोगोंको एशियाई कानूनके आगे झुके बिना परवाने प्राप्त हुए हैं। चार सौ लोगोंने अँगूठेके निशान देकर परवाने लिये हैं। वे नहीं जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं। वे नहीं जानते थे कि अँगूठेके निशान देकर वे एशियाई अधिनियमको स्वीकार कर रहे हैं। शेष लोगोंको अब यह ज्ञात हो गया है कि सरकारका मंशा क्या-कुछ करनेका है। मैं फिर पूछता हूँ, क्या वे हाथपर हाथ धरे बैठे रहेंगे और अपने धन्धे नहीं चलायेंगे? यह सर्वथा असम्भव है। कोई मुझसे पूछ सकता है कि गण्यमान्य भारतीयोंको फेरी लगाना प्रारम्भ करके बात क्यों बढ़ानी चाहिए। उत्तर स्पष्ट और सीधा-सादा है---जब ये देखते हैं कि फेरीवाले, जो शायद स्थितिको उतनी अच्छी तरह नहीं समझते जितनी ये नेतागण समझते हैं, मुसीबत उठा रहे हैं, तब इन लोगोंके लिए अपने घरोंमें चुपचाप बैठे रहना सम्भव नहीं है। यदि अपने गरीब देशभाइयोंको रास्ता दिखाने के लिए, उन्हें सही स्थिति बतानेके लिए, नेतागण आगे बढ़कर फेरी लगाना शुरू नहीं करते तो, मैं मानता हूँ, वे कर्तव्य-च्युत होंगे।

मुझे मालूम हुआ है, सुपरिटेंडेंट वरनॉन और एक जासूस आज तीसरे पहर भारतीय समाजके कुछ तमिल लोगोंसे मिले थे। श्री वरनॉनने उन लोगोंसे अपने पंजीयन प्रमाणपत्र दिखानेको कहा, और मुझे यह भी ज्ञात हुआ है कि उन अधिकारियोंमें से किसी एकने सख्त गाली-गलौजसे भी काम लिया। पता चला है कि सुपरिटेंडेंट वरनॉनने एक ऐसे भद्दे शब्दका प्रयोग किया जिसे मैं दुहरा भी नहीं सकता। और मैं उसे दुहराऊँगा भी नहीं। मैं तो कहता हूँ, अगर मेरे देशभाइयोंमें अपने विश्वासोंपर अमल करनेकी ताकत है, तो एक भी भारतीय अपना पंजीयन प्रमाणपत्र नहीं दिखायेगा। ब्रिटिश भारतीय संघने ये सारे पंजीयन प्रमाणपत्र अपने पास जमा करनेको माँगे हैं, ताकि समाजके गरीब और निचले तबकेके लोगोंकी सुरक्षा हो सके, और अगर उन्हें पंजीयन प्रमाणपत्र न दिखानेके लिए जेल भी जाना पड़ा, तो वे जायेंगे और इस प्रकार पुलिसको शिष्टताका पाठ पढ़ायेंगे। जिस समय श्री सोराबजीको एक मासका सपरिश्रम कारावास दिया गया था, उस समय अदालतके सामने जो दृश्य उपस्थित हुआ था उसे मैं कभी नहीं भूलूँगा। अदालतके सामने, न्यायाधीशकी नजरोंके आगे जो धक्का-मुक्की और मारपीट हुई उसे मैं आसानीसे नहीं भूल सकता।[१] मैं नहीं भूल सकता कि सिपाहियोंने अकारण ही, ब्रिटिश भारतीयोंको बिना कोई चेतावनी दिये, किस बेरहमीसे उन्हें अदालत-घरके बरामदेसे जबरन निकाल बाहर किया। उससे स्पष्ट हो जाता है कि कैसा विकट संघर्ष हमारी राह देख रहा है। उससे यह भी प्रकट

 
  1. देखिए "जोहानिसबर्गकी चिट्ठी", पृष्ठ ३८२ और पाद-टिप्पणी १ पृष्ठ ३८३। साथ ही देखिए "सोराबजी शापुरजीका मुकदमा---३", पृष्ठ ३७०-७१।