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२३५. पत्र: "इंडियन ओपिनियन" को[१]

जोहानिसबर्ग
जुलाई २४, १९०८

सम्पादक
"इंडियन ओपिनियन
महोदय,

मैं अखबारोंमें प्रकाशित आर० लल्लू बनाम ताजके मुकदमेकी ओर जनताका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ।[२] सौभाग्यसे सर्वोच्च न्यायालय इस मुकदमेपर अबतक विचार कर चुका है। इस मामलेसे स्पष्ट होता है कि जो एशियाई शैक्षणिक जाँचमें खरे उतर सकते हैं, प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमसे उनके प्रवेशपर रोक नहीं लगती। लल्लूके विरुद्ध जो सम्मन्स जारी किया गया था, उसमें उसपर प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमके खण्ड २५ के उल्लंघनका आरोप लगाते हुए कहा गया था कि चूँकि वह किसी यूरोपीय लिपिमें नहीं लिख सकता, अपने भरण-पोषणके पर्याप्त साधन उसके पास नहीं हैं और वह एक निषिद्ध प्रवासीका नाबालिग बच्चा है, इसलिए वह खुद भी निषिद्ध प्रवासी है। अर्थात्, यदि उसके पास अपनी जीविका कमानेके साधन होते और वह शैक्षणिक कसौटीपर पूरा उतरता तो उसे देशमें प्रवेश करनेसे रोका नहीं जा सकता था। सर विलियम सॉलोमनने फैसला देते हुए कहा:

सार्जेट मैन्सफील्डने गवाहीमें कहा है कि कैदी किसी यूरोपीय भाषामें कोई कागज नहीं लिख सकता, और इस तथ्यसे इनकार भी नहीं किया गया है। सार्जेट मैन्सफील्ड अभियुक्तसे लिखनेके लिए कहकर अथवा उसके इतना कह देनेसे कि वह लिख नहीं सकता, यह सूचना प्राप्त कर सकता था। उस हालतमें उससे अंग्रेजी लिपिमें कोई दस्तावेज लिखनेके लिए कहना हास्यास्पद होता।

अतएव यह स्पष्ट है कि विद्वान न्यायाधीशके अनुसार प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमसे उन एशियाइयोंके देशमें आनेपर प्रतिबन्ध नहीं लगता जो शैक्षणिक दृष्टिसे योग्य हैं। इस फैसलेको देखते हुए ब्रिटिश भारतीयोंका दावा पूरी तरह सिद्ध हो जाता है और श्री सोराबजीके जेल जानेसे वह और भी मजबूत हो जाता है। श्री सोराबजी प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत वैध रूपसे प्रविष्ट हुए थे, किन्तु एशियाई अधिनियमके आगे न झुकनेके कारण ही अपराधी माने गये थे।

इसलिए ब्रिटिश भारतीय समाज यदि प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत शिक्षित एशियाइयोंके प्रवेशके अधिकारको बनाये रखनेपर जोर देता है, तो उसकी इस माँगमें नई

 
  1. यह "प्रवासका प्रश्न" शीर्षकसे प्रकाशित हुआ था।
  2. देखिए "जोहानिसबर्गकी चिट्ठी", पृष्ठ ४०६।