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पत्र: जे० जे० ढोकको

निवेशवासी यह माँग करें कि अधिक-से-अधिक उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीयोंको भी उपनिवेशमें प्रवेश नहीं करना चाहिए, तो वे केवल प्रवेशपर कठोर नियन्त्रण ही नहीं, सम्पूर्ण निषेधकी आवश्यकता मानते हैं। ब्रिटिश भारतीयोंने जो प्रस्ताव रखा है वह परिणाममें सम्पूर्ण निषेधके समान ही है, और फिर भी वह एकदम सम्पूर्ण निषेध नहीं है। मेरी समझमें सम्पूर्ण निषेधमें यह इच्छा निहित है कि ब्रिटिश भारतीयोंकी व्यापारिक स्पर्धा उन्हीं लोगोंतक मर्यादित रहे जो उपनिवेशके निवासी हो चुके हैं। यदि ऐसा हो तो यह इच्छा, प्रवेशको केवल उन शिक्षित एशियाइयोंतक मर्यादित करके पूर्ण रूपसे पूरी हो जाती हैं, जो ऊँचे दर्जेका शिक्षण प्राप्त कर चुके हैं। दूसरे शब्दोंमें, वह शिक्षितोंके पेशे करनेवाले लोगोंतक मर्यादित किया जा सकता है। यह कहने की कदाचित आवश्यकता नहीं है कि ट्रान्सवालमें एशियाई समाज तबतक स्वतन्त्र और स्वस्थ नहीं रह सकता जबतक कि उसमें उसके अपने ही कुछ वकील, कुछ चिकित्सक, कुछ शिक्षक और कुछ धर्मोपदेशक जैसे लोग न हों। देशमें इनका प्रवेश किसी कृपाके कारण नहीं, किन्तु अधिकारके बलपर होना चाहिए। यूरोपीयोंसे इनकी किसी प्रकारकी स्पर्धा नहीं हो सकती। उलटे, यह मान्य कर लेनेपर कि वे वैसे ही लोग होंगे जैसे चाहिए, वे ट्रान्सवालके भारतीय समाजके निरन्तर विकासमें सहयोग दे सकते हैं और उसके लिए बहुत अधिक उपयोगी बन सकते हैं। उपनिवेशियोंके लिए भी उनका उपयोग हो सकता है। इसे करनेका एकमात्र तर्कसंगत उपाय यही है कि प्रवासी अधिनियमको जैसेका तैसा रहने दिया जाये। शिक्षित मनुष्योंकी शिनाख्त की कोई आवश्यकता नहीं हो सकती, इस साधारण कारणसे एशियाई विधेयकका सिद्धान्त ऐसे लोगोंपर लागू नहीं किया जाना चाहिए। शिक्षित भारतीयोंके सम्पूर्ण निषेधा समावेश करके कानूनमें परिवर्तनपर हमारी स्वीकृति लेना एक अतिरिक्त आपत्तिजनक बात तो है ही, वह मेरी रायमें अलंघ्य भी है। निश्चय ही उपनिवेशकी विधानसभा किसी भी समय बिना हमारी स्वीकृतिके निषेधका कानून प्रस्तुत कर सकती है। व्यक्तिगत रूपमें सम्पूर्ण निषेध का तो मैं हर तरह विरोध करूँगा और अपने देशवासियोंको ऐसे कानूनके विरुद्ध अनाक्रामक प्रतिरोध करनेको कहूँगा। मैं उन्हें अपने साथ लेकर चल सकूँगा या नहीं, यह फिलहाल कहना मेरे लिए कठिन है। ऐसे किसी भी कानूनके विरोधमें अनाक्रामक प्रतिरोधका अर्थ तो यह होगा कि भारतीयोंका मेरे द्वारा वर्णित शिक्षित व्यक्तियोंके स्वाभाविक सहयोगसे वंचित होकर रहने की अपेक्षा ऐसे देशमें न रहना अधिक अच्छा होगा। मेरी रायमें अनाक्रामक प्रतिरोधका अर्थ स्वयं अपने ऊपर एक तीव्र कष्ट ले लेना है। इसका मंशा यह सिद्ध करना है कि हेतु न्यायोचित है; और इस प्रकार उपनिवेशियोंके मनमें इस सत्यका साक्षात्कार कराना है। मैं आशा करता हूँ कि मैंने अपनी बात स्पष्ट कर दी है।

आपका सच्चा,
मो० क० गांधी

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २५-७-१९०८