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२४०. पत्र: खुशालचन्द गांधीको

जोहानिसबर्ग
जुलाई २६, १९०८

आदरणीय खुशालभाई, यह पत्र आधी रातको लिख रहा हूँ। ज्यादा लिखनेके लिए समय नहीं है। आप मुझे "अपना" खयाल रखनेकी सीख देते हैं, लेकिन हमें यह शिक्षा दी गई है कि आत्मा मरती नहीं, मारती नहीं और न किसीको मरवाती है।[१] यदि "अपना" से आपका मतलब अपने शरीरका खयाल रखना है तो उसे श्री भगवान्ने मोह कहा है। तब बताइए मैं किसका खयाल रखूँ? मैं तो आत्माका ही खयाल रखूँगा, अर्थात् आत्म-बोध प्राप्त करनेकी भरसक कोशिश करूँगा। ऐसा करनेमें शरीरका त्याग कर सकनेकी शक्ति तो हममें आनी ही चाहिए।

मुझे यह सब इसलिए लिखना पड़ रहा है कि बहुत सोचनेपर मैं देखता हूँ, हमारी कुछ कहावतें और प्रचलित सीख-सिखावन सर्वथा धर्म-विरुद्ध हैं। जिस पुस्तकको[२] हम सर्वोपरि मानते हैं उसीको व्यवहारमें बिलकुल किनारा कर देते हैं। अतः, मेरा विचार यह है कि मुझमें जितनी भी ताकत है, सब ऐसे आचरणके विरुद्ध लगा दूँ।

मोहनदासके दण्डवत्

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें पेंसिलसे लिखी मूल गुजराती प्रति (सी० डब्ल्यू० ४८४०) से।

सौजन्य: छगनलाल गांधी।

२४१. भाषण: जोहानिसबर्गकी सार्वजनिक सभामें

[जुलाई २६, १९०८][३]

आज हम लोग यहाँ किस लिए एकत्रित हुए हैं, यह आपको अध्यक्ष महोदयने पूरी तौरसे समझा दिया है। हम लोग यहाँ जेलसे रिहा होकर वापस आनेवालोंका सम्मान करनेके हेतु एकत्रित हुए हैं। ये सज्जन दुबारा जेल जानेको तैयार हैं। अन्य सब सज्जनोंको भी ऐसी ही दृढ़ताका परिचय देना है। और यदि हम इतनी दृढ़ताका परिचय देकर एक बार जेलकी कोठरियोंको भर देंगे, तो सरकार स्वयं ही पराजित हो जायेगी। हम लोगोंके दुःख रूपी तालोंको खोलनेकी चाबी कारावास है। इसलिए प्रत्येक भारतीयको तैयार रहनेकी जरूरत है। यहाँ जो भाई एकत्रित हुए हैं उनमेंसे प्रत्येकमें पर्याप्त दृढ़ता नहीं है। आगे,

 
  1. भगवद्गीता, २-१९,२०।
  2. यह संकेत भी 'गीता' की ओर है।
  3. यह सभा इमाम बावजीर तथा अन्य लोगोंके शनिवार (जुलाई २५, १९०८) को जेलसे छूटनेपर उनका सम्मान करनेके लिए आयोजित की गई थी। देखिए "जोहानिसबर्गकी चिट्ठी", पृष्ठ ४०२-०३।