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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अटकाना चाहते हैं। भारतीय इसे स्वीकार करते हैं कि वे एक ही शर्तपर इस देशमें रह सकते हैं और वह यह कि वे हिलमिल कर शान्तिपूर्वक काम करें और अपनी मर्यादाओंको भी समझें। मेरी नम्र सम्मतिमें उन्होंने सदा इसी आधारपर काम किया है और भले ही इसके विपरीत चाहे जैसी बात कही जाये, वे अब भी कानूनके पाबन्द ट्रान्सवालवासी बने हुए हैं।

[भेंट करनेवाला :] यह बात उनके वर्तमान अनाक्रामक प्रतिरोधके रुखसे किस प्रकार मेल खाती है?

[गांधीजी :] अनाक्रामक प्रतिरोध, एक ऐसी बातके प्रति जिसे हम, सही हो या गलत, अपमानजनक और धार्मिक दृष्टिसे आपत्तिजनक समझते हैं, हमारा सम्भ्रान्त विरोधभर है। दुर्भाग्य से जनरल स्मट्सका सारा भाषण यह प्रकट करता है कि उनकी भारतीय भावनाको जानने या सन्तुष्ट करनेकी इच्छा नहीं है। मैं यह बात बिना संकोचके कहता हूँ कि उन्होंने जो तथ्य दिये उनका उन्होंने पूरा अध्ययन नहीं किया है। उदाहरण के लिए, वे देशमें एशियाइयोंके संगठित रूपमें प्रवेश करनेकी बार-बार अस्वीकृत की गई बातकी चर्चा करते हैं। ब्रिटिश भारतीयोंकी ओरसे मैं इसे बिलकुल गलत ठहराता हूँ। इसके ये मानी नहीं कि कुछ भारतीयोंने लुके-छिपे इस देशमें प्रवेश नहीं किया है; लेकिन इन सबसे आज भी शान्ति- रक्षा अध्यादेशके अन्तर्गत प्रभावशाली ढंगसे निबटा जा सकता है। जो लोग इस देशमें बिना परवानेके या झूठे परवानेके आधारपर मौजूद हैं वे कोने-अंतरोंमें छिपे ही बैठे होंगे और एशियाई अधिनियम संशोधन कानूनकी पहुँच उन तक कभी न हो सकेगी। यह सम्भव नहीं कि जिन लोगोंके पास परवाने नहीं हैं या जिनके पास ऐसे कागज-पत्र हैं जो परवाने कदापि नहीं हैं, वे पंजीयन अधिकारीके पास देश छोड़नेका नोटिस लेनेके लिए जायेंगे।

लुक-छिपकर प्रवेश

लुक-छिपकर प्रवेशके आरोपका आधार वह रिपोर्ट है जो गत वर्ष प्रकाशित हुई थी। रिपोर्ट स्वयं अपनी भर्त्सना करती है, और उससे यदि कुछ सिद्ध भी होता है तो विपरीत ही। पाँच वर्षोंके भीतर १५०० लोगोंका चालान किया जाना प्रकट करता है कि शान्ति-रक्षा अध्यादेशका अमल प्रभावशाली ढंगसे किया गया है। और कप्तान हैमिल्टन फाउलने लॉर्ड मिलनरको जो रिपोर्ट पेश की उसमें वे भी इसी निष्कर्षपर पहुँचे थे। यदि उपनिवेशमें कोई भारतीय बिना परवानेका मिलता है, तो उसे लगभग आनन-फानन निकाला जा सकता है, और यदि वह उपनिवेश नहीं छोड़ता है तो उसे तुरन्त जेल पहुँचा दिया जाता है। लेकिन अधिकतर चालान उन भारतीयोंके हुए जो देशमें प्रवेश करनेकी कोशिश कर रहे थे और जिन्हें सरहदी नगरोंकी कड़ी जाँचके द्वारा सफलतापूर्वक रोक दिया गया था। वे भारतीय धोखा देकर आनेकी कोशिश ही कर रहे थे, सो बात नहीं है। शुरू-शुरू में उनका विश्वास था, जैसा कि बहुत से यूरोपीयोंका भी था, कि ब्रिटिश झंडेके नीचे उन्हें प्रवेश करनेमें, या यों कहिए कि, ट्रान्सवालमें पुनः प्रवेश करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती और उनकी चेष्टा उसीके अनुसार थी। क्योंकि उनमें से अधिकतर भारतीय ऐसे शरणार्थी थे जो तटवर्ती नगरोंमें ठहरे हुए थे और पुनः प्रवेशके अवसरको ताकमें थे।

१. देखिए खण्ड ६, पृष्ठ ४२८-२९ और ४३२-३४ ।