पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५
भेंट : 'ट्रान्सवाल लीडर' को

जनरल स्मट्स जाली परवानोंकी बात करते हैं और उसी साँसमें यह भी कहते हैं कि यह बताना कठिन है कि कौन परवाना जाली है, कौन असली। यह बिलकुल बेतुकी बात है। अनुमतिपत्र अधिकारियोंके पास सदा एक प्रतिपत्र रहता है, जिसपर प्रार्थियोंको दिये गये अनुमतिपत्रकी ही संख्या दर्ज रहती है, जिससे जालका बराबर पता लग सके। मैं जानता हूँ, कुछ महीने हुए, वर्तमान पंजीयकके दफ्तरके एक अधिकारीने ऐसे कागजात लोगोंको दिये थे, जिन्हें वह परवाने कहता था। धोखेमें आकर जिन व्यक्तियोंने उन कागजोंको ले लिया था वे उनका उपयोग नहीं कर पाये। उन्होंने न केवल अपना पैसा गँवाया, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा भी खोई। वह अधिकारी अब इस देशमें नहीं है, लेकिन मेरा विश्वास है कि लोगोंको काफी ठग चुकने और यह देखनेके बाद कि उसका भण्डा फूटनेवाला है, वह भाग गया है। बम्बई या डेलागोआ-बेमें या कहीं दूसरी जगह ऐसा दफ्तर कभी नहीं था जहाँ उस व्यापारके चल सकनेकी सम्भावना हो जिसकी जनरल स्मट्सने बात की है। दलाल निस्सन्देह थे; पर भारतमें नहीं, दक्षिण आफ्रिकामें। वे जोहानिसबर्ग के एशियाई दफ्तर में शरणार्थियों को और जब-तब देशमें प्रवेश करनेकी इच्छा रखनेवालोंको असली परवाने दिया करते थे।

परवानोंकी जालसाजी

जालसाजी इस तरह होती रही है। उपनिवेश सचिवके पास जोहानिसबर्ग के एशियाई अधिकारी उन प्राथियोंके नाम भेजते रहे हैं जिन्हें वे परवानोंके लिए उपयुक्त समझते थे। उपनिवेश सचिव ऐसे परवानोंके दिये जानेकी मंजूरी देते रहे हैं। लेकिन ये नाम अक्सर नकली होते थे, यद्यपि परवाने बाकायदा जारी किये जाते थे और उनपर सही सही अँगूठोंके निशान या हस्ताक्षर भी होते थे। इस प्रकार जो लोग देशमें प्रवेश पानेके अधिकारी होते थे उन्हें प्रवेश पाने अथवा अपने दावोंपर विचार करानेके पूर्व लम्बी रकमें देनी पड़ती थीं। इस बातपर सर आर्थर लालीका ध्यान तीन बार आकर्षित किया गया और उन्होंने अन्तमें मुकदमा चलाया जानेका आदेश दिया। मुकदमा तो असफल रहा, लेकिन सम्बद्ध अधिकारियों को निकाल दिया गया, क्योंकि उनके विरुद्ध विभागीय स्तरपर इल्जाम सिद्ध हो गया था। लेकिन इन बातों से यह मालूम होता है कि शान्ति-रक्षा अध्यादेश कितना कारगर रहा। घुसपैठके बारेमें १८८५ के कानून ३ की बात उठाना और उसे अपर्याप्त बतलाना मसलेको गलत ढंग से सामने लाना है। उस कानूनका उद्देश्य एशियाई प्रवासपर अंकुश लगाना कभी नहीं था। वह सिर्फ इतना कहता है : "जो लोग इस गणतंत्र में व्यापारके या दूसरे उद्देश्यसे बस जाते हैं, वे अपना नाम एक विशेष पंजिकामें दर्ज करानेपर बाध्य होंगे।" इस प्रकार ट्रान्सवालमें व्यापार करनेवालोंसे व्यक्ति कर वसूल करना इसका उद्देश्य था, क्योंकि भारतीय पंजीयन कराने या कुछ शुल्क देनेके लिए भी मजबूर नहीं थे। भारतीयोंका प्रवास उतना ही मुक्त था जितना यूरोपीयोंका। ऐसे प्रवासको सीमित करनेका प्रश्न शान्तिकी घोषणा होनेके बाद उठा और तब शान्ति-रक्षा अध्यादेशका उपयोग, बिलकुल अनुचित रूपमें, एशियाइयोंके प्रवेशको रोकने के लिए किया गया। कारण कुछ भी हो, यह सुझाव दिया गया कि शान्ति-रक्षा अध्यादेशमें संशोधन होना चाहिए। संशोधनका मसविदा 'ट्रान्सवालमें एशियाइयोंसे सम्बन्धित विधान सरकारी रिपोर्टके पृष्ठ ९ पर मिलता है, जो गत वर्षं प्रकाशित हुई है।

१. यह वास्तवमें जनवरी १९०८ में प्रकाशित हुई। देखिए "नीली पुस्तिका", पृष्ठ १०१-१०२ ।