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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

संशोधनकी कार्रवाई बिलकुल उचित होती, और ब्रिटिश भारतीयोंको शिकायतका अवसर न होता। उसी समय १८८५ के कानून ३ के संशोधनका एक मसविदा भी सुझाया गया था।

नीति एकाएक बदली

यह बिलकुल नरम ढंगका था, लेकिन एकाएक सब-कुछ बदल गया, और मैं समझता हूँ कि वह श्री लॉयनेल कर्टिस थे, जिन्होंने इस सबके बाद भी इस तरहकी कानूनी व्यवस्थाके अभिप्राय और रुखको पलट दिया और समाजपर एशियाई संशोधन अध्यादेशका मसविदा लाद दिया। यह अब कानूनके रूपमें मंजूर हो गया है। इसे १८८५ के कानून ३ का संशोधन कहना एक गलत नाम देना है; यह वास्तवमें सारी एशियाई नीतिको परिवर्तित कर देता है। इससे पहले भी एशियाइयोंके सम्बन्धमें वर्गीय कानून बने हैं किन्तु उनके विरुद्ध बहुत सुनने में नहीं आया; लेकिन एशियाई पंजीयन कानून एक बिलकुल ही नई चीज है, और चूँकि यह एक झूठे इल्जामपर आधारित है, जो ऊपर बताया जा चुका है, इसे भारतीय समाज द्वारा कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता, और विशेषकर इसलिए कि यह समाज एक गम्भीर प्रतिज्ञासे बँधा हुआ है।

मुझे अचरज है कि जनरल स्मट्सने इन बातोंकी बराबर उपेक्षा की है, और ब्रिटिश भारतीयोंसे अपने अन्तःकरणके विरुद्ध आचरण करनेको कहा है। कोई भी उनसे यही अपेक्षा करता कि जबतक उनका मुख्य ध्येय, अर्थात् उपनिवेशके प्रत्येक भारतीय या एशियाई निवासीकी शिनाख्त, सिद्ध होती रहती तबतक एक बहुत शक्तिशाली सरकार तथा बहुसंख्यक यूरोपीयोंके प्रतिनिधिके नाते उनमें इतनी शालीनता और उदारता होनी चाहिए थी कि वे भारतीयोंके मनोभावका आदर करते। इसे वे छः महीने पहले भी कर सकते थे और अब भी यह हो सकता है।

किन्तु श्री गांधी, जनरल स्मट्सका कथन आपके कथनसे बहुत भिन्न है।

बिलकुल ठीक। यह कहा जा सकता है कि मेरा कथन केवल प्रति कथन है और यह भी कि जनरल स्मट्सने वही कहा होगा जिसे वे सच समझते हैं। मैं नहीं चाहता कि भारतीय समाज जो कुछ कहता है उसे ज्योंका-त्यों मान लिया जाये। लेकिन मैं यह अवश्य कहता हूँ कि मैंने जो कुछ ऊपर कहा है वह अदालती और खुली जाँचका पर्याप्त आधार प्रस्तुत करता है। कोई भी न्यायप्रिय उपनिवेशी उसपर एतराज नहीं कर सकता। यदि ऐसी जाँचके दौरानमें बड़ी संख्यामें प्रवेशके आरोप और शान्ति-रक्षा अध्यादेशकी खामीके बारेमें कही गई बातें सिद्ध हो जायें तो एशियाई पंजीयन अधिनियमके पक्षमें कुछ कहनेको हो सकेगा। परन्तु यदि ऐसे आयोगका निर्णय भारतीय दावेके पक्षमें हो तो एक प्रबल सरकार, जो ब्रिटिश भारतीयोंके साथ न्यायपूर्ण बर्ताव करनेका दम भरती है, अपनी भूल स्वीकार क्यों न करे और अपना कदम क्यों वापस न ले ले?

अँगुलियोंकी छाप

यह पूछा जानेपर कि अँगुलियोंकी छाप देनेके विषयमें वास्तविक आपत्ति क्या है, श्री गांधीने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि इस विषयको लेकर बहुत-सा कागज और