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२५७. पत्र: ए० कार्टराइटको[१]

[ जोहानिसबर्ग ]
अगस्त ५, १९०८

प्रिय श्री कार्टराइट,

मैं श्री [हाँस्केन] के[२] नाम अपने पत्रकी नकल साथ बन्द कर रहा हूँ। उसपर और कुछ कहना अनावश्यक है। मैंने उसमें तीखी [ शब्दावली ] का प्रयोग किया है, क्योंकि मैं और तीखे शब्दों का प्रयोग करनेमें असमर्थ था। मैंने ठीक वैसा ही लिखा है जैसा मैं महसूस करता हूँ। मेरे इतने देशवासी जेल जा रहे हैं और अनावश्यक कठिनाइयाँ भी झेल रहे हैं, जहाँ इस [तथ्य] पर मुझे गर्व होता है, वहीं मैं इस परिस्थितिपर अत्यन्त तीव्रतासे महसूस किये बिना नहीं रह सकता; विशेषतः जब मुझपर, जो इन सब बातोंके लिए मुख्य रूपसे उत्तरदायी है, वार नहीं हो रहा है। मैं जरूर सोचता हूँ, और गलत हो तो आप मेरे खयालको सुधार सकते हैं, कि आपके सम्पादकीय कलम उठाने और ट्रान्सवालके अखबारोंका मार्गदर्शन करनेका समय आ पहुँचा है।[३]

आपका हृदयसे,

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रतिकी फोटो-नकल (एस० एन० ४८५५) से।

२५८. शिक्षितोंका कर्तव्य

शिक्षित भारतीय अथवा जो भारतीय अपनेको शिक्षित मानते हैं, ट्रान्सवालमें दाखिल होकर श्री सोराबजीके साथ जेल भोगनेके लिए आतुर हैं। इससे उनकी स्वदेशभक्ति प्रकट होती है। किन्तु सदा अपनी इच्छानुसार भक्ति करना सम्भव नहीं होता। वह सच्ची भक्ति नहीं मानी जायेगी। यदि सभी लोग सिपाही बनकर रणमें मरना चाहें, तो यह सम्भव नहीं है। कुछका युद्धके बाहर रहना ही बड़ा कर्तव्य है। यही स्थिति शिक्षित भारतीयोंकी भी समझनी चाहिए। फिलहाल केवल श्री सोराबजी ही शिक्षितोंमें से प्रवासी अधिनियमके अन्तर्गत जेल जानेके लिए पर्याप्त हैं। इस बीच नेटाल और दूसरी जगहोंमें जो शिक्षित भार- तीय हैं, उन्हें भगवा पहन लेना चाहिए; अर्थात् अपने दिलको भगवा बना लेना चाहिए। उन्हें अपनी शिक्षा देशको समर्पित कर देनी चाहिए और जिन लोगोंको ट्रान्सवालमें जानेका हक है ऐसोंको तैयार करनेके लिए उचित तालीम देनी चाहिए। ट्रान्सवालमें आनेका जिन्हें

 
  1. यह पत्र कुछ कट-फट गया है और कहीं-कहीं पढ़ा नहीं जाता।
  2. यहाँ कागज फटा है। यह "पुत्र: डब्ल्यू० हाँस्केनको", पिछला शीर्षक होगा।
  3. बादमें गांधीजीने स्वयं ट्रान्सवाल लीडरके सम्पादक (कार्टराइट) को एक पत्र लिखा। इस पत्रपर उसी दिन एक सम्पादकीय लेख भी प्रकाशित हुआ। देखिए पृष्ठ ४२७ पादटिप्पणी २।