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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हक है वे लोग हैं: डच-कालीन तीन पौंडी पंजीयनवाले; अपंजीकृत किन्तु जो युद्धके पहले लम्बी अवधि तक ट्रान्सवालमें रह चुके हैं; तथा वे लोग जिनके पास युद्धके बादके अनुमतिपत्र और पंजीयनपत्र हों। ये सारे भारतीय प्रामाणिक होने चाहिए---जाली लोगोंका काम नहीं है। यदि जाली लोगोंको तैयार किया जायेगा, तो हम हार जायेंगे। ऐसे भारतीयोंको और उनमें से अन्तिम वर्गवाले अर्थात् लड़ाईके बादके अनुमतिपत्र व पंजीयनपत्र प्राप्त लोगोंको ट्रान्सवालमें दाखिल होनेके लिए तैयार किया जाये। उनसे कहा जाये कि ट्रान्सवालकी हदमें दाखिल होते हुए उनसे अँगूठोंके निशान या हस्ताक्षर माँगे जायेंगे। वे उन्हें देनेसे इनकार करें। इनकार करनेपर वे उतार लिये जायेंगे। उतर जायें। जमानत न दें। और हवालातमें रहें। मुकदमा चले, तब उपस्थित हों। जुर्माना अथवा जेलकी सजा होगी। जुर्माना न दें, किन्तु हँसते-हँसते जेल जायें। प्रवेशके हकदार भारतीयोंको इस तरह समझाया जाये। जो भारतीय ये काम करनेको तैयार हों, वे ब्रिटिश भारतीय संघको अपने नाम भेजें। हकदार भारतीय [ ट्रान्सवालके लिए ] रेलपर सवार हों, तब संघको खबर दी जाये।

शिक्षित देशभक्त भारतीय रेलगाड़ियोंमें तलाश करें। उनमें कौन-से भारतीय जा रहे हैं सो देखें और उन्हें उपर्युक्त बातोंकी पूरी जानकारी दें, तथा संघको खबर दें।

सारे भारतीयोंको यह समझना चाहिए कि ट्रान्सवालकी लड़ाईमें समस्त दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंका हित है। ट्रान्सवालके भारतीय हार गये, तो दूसरी जगहके भारतीयोंकी हार निश्चित होगी। आजतक ट्रान्सवालमें जो हुआ है, दुनियाके किसी अन्य भागमें भारतीयोंने वैसा नहीं किया। भारतमें भी ऐसा संग्राम नहीं हुआ है। ट्रान्सवालकी लड़ाई अत्यन्त सच्ची और पवित्र है। उसमें शासक-गण तथा प्रजा दोनोंके हितका समावेश है।

संघर्षका रहस्य यह है कि छोटे-बड़े समस्त भारतीय अपनी सच्ची स्वतन्त्रताको समझें, गुलामीसे छूटने की इच्छा रखें और जेलके अथवा दूसरे दुःखोंसे न डरें। यदि इतना हो जाये, तो उसका यह अर्थ होगा कि ऐसे भारतीयके लिए आज ही स्वराज्य है। वे आज ही स्वतन्त्र हैं। इसका परिणाम बादमें यह होगा कि कानून रद हो जायेंगे, गोरे अधिक मान देने लगेंगे और बस्ती आदिमें जाना खत्म हो जायेगा। ये विचार समझ-बुझकर हृदयंगम करने योग्य हैं।

जो भारतकी सेवा करना चाहते हों, उन्हें चाहिए कि वे अपना व्यक्तिगत स्वार्थ साधनेका विचार एकदम छोड़ दें।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ८-८-१९०८