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२६९. पत्र: 'स्टार' को[१]

[ जोहानिसबर्ग
अगस्त १२, १९०८ ]

[ सम्पादक
'स्टार' ]
महोदय,

मैं आशा करता हूँ कि आप मुझे शिक्षित भारतीयोंके प्रश्नके सम्बन्धमें, जिसकी एशियाई संघर्षपर लिखित अपने कलके सम्पादकीयमें आपने चर्चा की है, आपकी कुछ भूलोंको सुधारनेकी अनुमति देंगे।[२] ब्रिटिश भारतीयोंने शिक्षित भारतीयोंके लिए दरवाजा खोलनेकी माँग नहीं की है। वे इतना ही चाहते हैं कि प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत वह आज जितना खुला हुआ है, उतना खुला रहने दिया जाये। आपने यह मान लिया है कि अंग्रेजी-भाषी युवकोंको प्रवेश देनेकी माँग की जा रही है। सचाई यह है कि भारतीयोंने स्पष्ट कर दिया है कि जबतक उच्चतम शैक्षणिक योग्यताएँ रखने वालोंके लिए परवाना खुला रखा जाता है---न कि खोल दिया जाता है---उन्हें उनकी शैक्षणिक योग्यताकी कसौटीपर, वह कितनी ही कड़ी क्यों न हो, कोई आपत्ति न होगी।

आप कहते हैं कि इस कथित नई माँगको देखते हुए जनरल स्मट्सका अपने दिये हुए किसी भी वचनसे फिर जाना अनुचित नहीं होगा। मैंने जो तथ्य पेश किये हैं उनसे आप खुद ही जान सकते हैं कि कोई नई माँग नहीं रखी गई है। लेकिन यदि रखी गई होती तो क्या एशियाइयों द्वारा स्वेच्छया पंजीयनकी उस शर्तके पूरा कर दिये जानेपर भी, जिसपर कि जनरल स्मट्सका वचन निर्भर था, उनका उसे तोड़ना उचित माना जा सकता है? इसके अलावा यदि एशियाई कोई नई माँग रखते हैं तो जनरल स्मट्सको यह अधिकार तो अवश्य है कि वे उसे देनेसे इनकार कर दें, लेकिन उसके कारण उन्हें अपना वचन तोड़नेका अधिकार तो निश्चय ही प्राप्त नहीं होता। एशियाइयोंको जिस बातका दुःख है वह यह है कि वे शैक्षणिक अयोग्यताकी स्वीकृतिको एशियाई अधिनियमको रद करने की शर्त बनाते हैं। क्या उनके लिए सम्मानका मार्ग यह नहीं होगा कि वे, उन्होंने जिस वस्तुको देने का वचन दिया है, उसे दे दें और फिर उसे स्वीकार या अस्वीकार करनेका भार एशियाइयोंपर डाल दें?

 
  1. यह इंडियन ओपिनियनमें "ट्रान्सवालमें भारतीयोंका संघर्ष" शीर्षकसे पुनः प्रकाशित हुआ था।
  2. स्टारने ता. ११-८-१९०८ के अपने सम्पादकीयमें चर्चा करते हुए इस प्रकार लिखा था: "... श्री गांधी एशियाई अधिनियमको रद करनेसे इनकार करनेके कारण उपनिवेश मंत्रीपर शर्मनाक वचन-भंगका दोषारोपण करते हैं जब कि दूसरी ओर श्री स्मट्स जोर देकर कहते हैं कि एशियाई नेता अब नई रियायतोंकी माँग कर रहे हैं...लेकिन उनके [ श्री गांधीके ] सुबूत...निश्चय ही अपूरे हैं...श्री गांधी, जब कि, श्री स्मटसके लिए 'हत्या' और 'सुसंगठित डाके' की हदतक दोषारोपण करनेपर उतारू हो जाते हैं, तो वे लोग भी जो [ एशियाइयोंके प्रति ] असहिष्णु नहीं हैं---वस्तुस्थितिकी बाबत उनकी विश्वसनीयताके प्रति सशंकित हो उठते हैं... श्री स्मटस संसदके सेवक हैं और इसलिए कोई अभिवचन, जो उन्होंने श्री गांधीको दिया हो, निश्चय ही, विधान मण्डलकी स्वीकृतिको अपेक्षा रखता है।...[ श्री गांधीके प्रस्तावको स्वीकार करनेके मानी हैं ] उन हजारों भारतीय लड़कोंका...अनियंत्रित प्रवेश जो नेटालकी [ या भारतकी ] पाठशालाओंमें शिक्षा पाते रहे हैं या पा रहे हैं। ...एशियाइयोंने जो मुसीबतें बरदाश्त की हैं वे केवल अपने नेताओंकी हठधर्मी और मूर्खताके कारण उठाई हैं...और अब जबकि उन्हें इसके परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं उन्हें शिकायत क्यों करना चाहिए...।"