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प्रार्थनापत्र: ट्रान्सवाल विधान सभाको

एशियाई कानून मानना पसन्द करें तो स्वविवेक सम्बन्धी धाराके अन्तर्गत पंजीयन प्रमाणपत्र ले सकते हैं। चूँकि ऐसे एशियाई पुराने कानूनके स्वरूपसे सहमत न होंगे, वे प्रवेशसे वर्जित किये जायेंगे। यही बातें उन शिक्षित भारतीयोंपर भी लागू होती हैं जो प्रवासी प्रतिबन्धक कानूनके अन्तर्गत उपनिवेशमें प्रवेश कर सकते हैं, पर जो एशियाई कानूनकी जरूरतें न पूरी करनेके कारण "अपंजीकृत" माने जायेंगे। "यह एक होशियारीकी चाल है", श्री गांधीका कथन है, "किन्तु सम्मान योग्य कदापि नहीं।" भारतीयोंका विचार है कि नया कानून एक ही वर्गके लोगोंके लिए अलग-अलग कानूनी व्यवस्था करता है, जैसे कि यह उन भारतीयोंकी हरकतों पर नियन्त्रण रखता है जिन्होंने स्वेच्छया पंजीयन प्रमाणपत्र लिये हैं और पुराना एशियाई कानून बाकी एशियाइयोंकी गतिविधियोंपर।

[ अंग्रेजीसे ]
ट्रान्सवाल लीडर, १३-८-१९०८

२७१. प्रार्थनापत्र: ट्रान्सवाल विधानसभाको[१]

सेवामें
माननीय अध्यक्ष महोदय और
ट्रान्सवालकी माननीय विधानसभाके सदस्यगण
प्रिटोरिया

जोहानिसबर्ग
अगस्त १३, १९०८[२]

ब्रिटिश भारतीय संघके अध्यक्षकी हैसियतसे ईसप मियाँ और उसके
अवैतनिक मन्त्रीकी हैसियतसे मो० क० गांधीका प्रार्थनापत्र

सविनय निवेदन है कि:

१. ब्रिटिश भारतीय संघ ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय निवासियोंका प्रतिनिधित्व करता है।

२. संघके सदस्य सरकारी 'गजट' में प्रकाशित उस विधेयकको पढ़कर बहुत चिन्तित हुए हैं, जिसका मंशा "उन एशियाइयोंके स्वेच्छया पंजीयनको वैध बनाना है जो १९०७ के एशियाई कानून संशोधन अधिनियमकी धाराओंका पालन नहीं कर सके हैं।"

३. जब ब्रिटिश भारतीयोंने स्वेच्छया पंजीयन कराना स्वीकार किया था, तब १९०७ के एशियाई कानून संशोधन अधिनियमको मान्य करनेका उनका कोई इरादा नहीं था।

४. यद्यपि सम्माननीय सदनके सामने जो विधेयक है, वह देखनेमें ब्रिटिश भारतीयोंको उक्त अधिनियमके पालनपर बाध्य नहीं करता, किन्तु सचमुच उक्त विधेयकके अन्तर्गत वैध किये जानेवाले स्वेच्छया पंजीयन और एशियाई अधिनियमके अन्तर्गत किये जानेवाले पंजीयनमें कोई भेद नहीं है।

 
  1. यह २२-८-१९०८ के इंडियन ओपिनियनमें "संसदके नाम प्रार्थनापत्र" शीर्षकसे प्रकाशित हुआ था।
  2. हालांकि प्रार्थनापत्र इस तारिखको लिखा गया था, किन्तु इसे १४ अगस्तके बाद प्रेषित किया गया था। देखिए अगला शीर्षक, पृष्ठ ४४६।