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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उनसे छूटनेके खयालसे बाहर नहीं आया---मुझसे पूछिए तो वहाँ मुझे कोई कष्ट नहीं था। परन्तु अगर मुझे ऐसा अपमान सहनेकी नौबत आये अथवा मुझे यह देखना पड़े कि मेरे किसी देशभाईको ठुकराया जा रहा है या उसकी हककी रोटी उससे छीनी जा रही है तो मुझे उससे कहीं अधिक कष्ट होगा। मैं यह सब अपनी आँखोंके सामने देखनेकी अपेक्षा अपना सारा जीवन जेलमें काटना पसन्द करूँगा। और यह मैं खुदाके दरपर, इस इबादतगाहमें खड़ा होकर कहता हूँ और पुनः दुहराता हूँ कि इस तरह जेलसे बाहर आने और अपने देशभाइयोंको अपमानित होते देखनेकी अपेक्षा मैं सारा जीवन जेलमें बिताना पसन्द करूँगा और वहाँ सन्तोष मानूँगा। नहीं, भाइयो, आज आपके सामने जो सेवक खड़ा है वह उस मिट्टीका बना नहीं है। इसीलिए मैं आपसे कहता हूँ कि आप अपनी शपथको तोड़ने की अपेक्षा जो भी मुसीबतें सहनी जरूरी हों उन सबको सह लें। चूँकि मैं अपने देशवासियोंसे आशा करता हूँ कि वे विशेषतः अपने प्रभुके प्रति सदा सच्चे रहेंगे, इसीलिए आज मैं आपसे कहता हूँ कि आप अपने प्रमाणपत्रोंको जला दें। ( "हम इन्हें जलानेको तैयार हैं"---की आवाजें )। मुझसे कहा गया है कि इस उपनिवेशमें भारतीयोंकी स्थितिके बारेमें मैंने अभी हालमें जो कुछ कहा था उसका गलत अर्थ लगाया गया है। मैंने अपने कथनके बारेमें कुछ लोगोंकी टिप्पणियाँ पढ़ी हैं और मेरा कथन यह है: मैं दावा करता हूँ कि यह देश जिस तरह गोरोंका है उसी तरह ब्रिटिश भारतीयोंका भी है। और मैं स्वीकार करता हूँ कि यह मेरा दावा है। परन्तु मेरे इस दावेका अर्थ क्या है? इससे मेरा आशय यह नहीं है कि हमें इस देशमें एशियाइयोंको बेरोक-टोक आने देनेकी स्वतन्त्रता है। नहीं, मैं भी अपने आपको इस उपनिवेशका निवासी मानता हूँ। इस देशमें मैंने अपने जीवनका काफी लम्बा हिस्सा बिताया है। इसलिए अगर यह देश चाहता है, अर्थात् यदि इस देशका कल्याण इस बातमें है कि इसमें एशियाइयोंका प्रवास बेरोक जारी नहीं रहे तो मैं यह कहने वाला पहला आदमी होऊँगा कि हाँ, ऐसा ही किया जाये। अगर इस देशके अधिकांश निवासी यह माँग करें कि एशियाइयोंका आव्रजन बन्द कर देना चाहिए---ध्यान दीजिए कि मैं आव्रजन शब्दपर जोर देता हूँ ---अगर वे कहें कि एशियाइयोंके आव्रजनपर सुव्यवस्थित नियन्त्रण हो तो मैं कहता हूँ कि मैं इसे भी मंजूर कर लूँगा। परन्तु यह मंजूर कर लेनेके बाद मैं दावा करूँगा कि यह देश जिस प्रकार दूसरे उपनिवेशियोंका है उसी प्रकार मेरा भी है। और इसी अर्थमें मैंने अपने देशभाइयोंकी तरफसे यह दावा पेश किया है और मैं यह भी कहता हूँ कि उपनिवेशियोंको चाहिए कि वे इसे मंजूर कर लें। उपनिवेशियोंको इसमें कोई लाभ नहीं कि वे ऐसे ब्रिटिश भारतीयोंको ट्रान्सवालमें रखें जो मनुष्य नहीं हैं बल्कि जिनसे ऐसा व्यवहार किया जा सकता है मानो वे पशु हों। इसमें न तो उपनिवेशियोंका भला है और न भारतीयोंका ही। अगर उपनिवेशके उपनिवेशी या ब्रिटिश भारतीय यह स्थिति ग्रहण करते हैं तो भारतीयोंके लिए इस उपनिवेशमें अत्यन्त अपमानजनक स्थितिमें रहनेसे तो यही अच्छा है कि वे उपनिवेशसे खदेड़ दिये जायें और भारत भेज दिये जायें ताकि वे अपने दुखड़ोंकी कथा अपने देशमें ले जायें। जब मैं यह कहता हूँ कि यह देश जिस प्रकार यूरोपीयोंका है उसी प्रकार मेरा भी है तो मेरा मतलब यही होता है। और आखिर इस लड़ाईका अर्थ क्या है जिसे हम लड़ रहे हैं? इसका क्या महत्त्व है? मेरे खयालमें इसका महत्त्व तबसे नहीं शुरू होता जबसे हमने एशियाई कानूनके रद किये