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भाषण: सार्वजनिक सभामें

जानेकी माँग रखी और न वह उस कानूनके रद होनेपर समाप्त हो जाता है। मैं खूब जानता हूँ कि सरकार इस कानूनको आज ही रद कर सकती है, और हमारी आँखोंमें धूल झोंक सकती है, और फौरन इससे कहीं अधिक सख्त तथा अधिक अपमानजनक कानूनका मसविदा बनाकर पेश कर सकती है। परन्तु इस लड़ाईसे मैं एक सबक लेना चाहता हूँ और चाहता हूँ कि मेरे देशभाई भी वह सबक सीखें। वह यह है कि यद्यपि हमारा मताधिकार छीन लिया गया है, और यद्यपि ट्रान्सवालके शासनमें हमें कोई प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है तथापि हमारे लिए एक अमर मताधिकार प्राप्त कर लेनेका रास्ता खुला है और वह यह है कि हम अपनी मनुष्यताको समझें और यह समझें कि हम उस सम्पूर्ण विश्वका एक अभिन्न अंग हैं, और यह कि हम सबका कोई एक सिरजनहार है जो सम्पूर्ण मानव जातिका भाग्य-विधाता और शासनकर्ता है। पृथ्वीपर शासन करनेवाले हाड़-माँसके बने राजाओंकी अपेक्षा हमें उसमें अपनी श्रद्धा रखनी चाहिए। अगर मेरे देशभाई इस बातको अच्छी तरहसे समझ लें तो मैं कहता हूँ कि हमारी अवगणना करके जो भी कानून बनना हो बनता रहे। हम उसकी चिन्ता नहीं करेंगे। अगर वह हमारी न्याय और अन्यायकी धारणाके प्रतिकूल होगा, अगर वह हमारी विवेकबुद्धिके खिलाफ होगा, अगर वह हमारे धर्मके विपरीत होगा तो हम निधड़क कह सकते हैं कि ऐसे कानूनके सामने हम अपना सर नहीं झुकायेंगे। हम शारीरिक बलका प्रयोग नहीं करेंगे, किन्तु कानूनमें दिये गये प्रतिबन्धको मानेंगे। कानूनको तोड़ने पर जो सजा मिलेगी, जो दण्ड होगा उसे हम स्वीकार कर लेंगे। मैं इसे विद्रोह नहीं कहूँगा। एक मनुष्यके लिए, मानव-जातिके एक सदस्यके लिए, जो अपने-आपको सचमुच मनुष्य समझता है, इसे मैं एक सम्पूर्ण आदरयुक्त वृत्ति मानता हूँ। और ब्रिटिश भारतीय इस सबकको ठीक तरहसे सीखें, इसीलिए हमारी कौमके सारे मुखियोंने एकत्र होकर यह निश्चय किया कि हम अपने देशभाइयोंके सामने इस तरहकी लड़ाई, लड़ाईका यह तरीका, रखेंगे। इससे उपनिवेशकी सरकारको किसी तरहकी हानि नहीं हो सकती। और न उन लोगोंको इससे किसी प्रकारकी हानि हो सकती है जो लड़ाईमें भाग ले रहे हैं। यह तो केवल उनको सचाईकी कसौटीपर चढ़ाती है। वे अगर सच्चे हैं तो उनकी जीत निश्चित है। किन्तु अगर वे सच्चे नहीं हैं तो जिस लायक वे होंगे वैसा उन्हें फल मिलेगा। मैं एक बात और कह दूँ, फिर मैं आपसे इजाजत माँगूँगा कि आपके सभापति श्री ईसप मियाँ आपके प्रमाणपत्रोंको आग लगायें या नहीं। मैं जो बात कह रहा था वह यह है कि अभीतक मैंने किसीके व्यक्तित्वपर कोई आक्षेप नहीं किया है। हाँ, रामसुन्दरके मुकदमेके समय जरूर मैंने कुछ कटाक्ष किया था। और वह पंजीयन विभागके प्रधानाधिकारी श्री चैमनेपर[१] था। इस मौकेपर मैं उपनिवेशियों, भारतीय समाज और उपनिवेशकी प्रतिष्ठा और इज्जतके हित में एक बात कह देना अपना परम कर्तव्य समझता हूँ। वह यह कि जबतक पंजीयन विभागमें श्री चैमनेका राज सर्वोपरि चलता रहेगा तबतक कमसे-कम एशियाइयोंको तो चैन कभी नसीब नहीं हो सकती।[२] मुझे उनसे काफी वास्ता पड़ा है। अतः मैं उन्हें खूब जानता हूँ। इसीलिए मैंने कहा है कि वे अत्यन्त अयोग्य और अपने कामसे अनभिज्ञ हैं यह बात मैंने पहले

 
  1. देखिए खण्ड ७, पृष्ठ ३५९
  2. यह आलोचना मुख्य प्रवासी प्रतिबन्धक अधिकारीके पदपर मॉटफोर्ड चैमनेकी नियुत्तिके विरुद्ध थी। इस पदपर चैमनेकी नियुत्ति उस प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत हुई थी जो जनवरी २७, १९०८ को प्रकाशित हुआ था।