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भेंट: 'टान्सवाल लीडर' को

निश्चय ही, यदि हमने स्वयं यह सीमा अपने ऊपर लगाई है कि केवल उच्च-शिक्षा प्राप्त भारतीय प्रवेश करें, तब उस हालतमें यह तो हम होंगे जो कुछ त्याग कर रहे होंगे, न कि विधान-मण्डल, जो हमें एक नई सुविधा प्रदान करेगा। अतः यह कहना असंगत है कि हम एक नई माँग उठा रहे हैं। दूसरा प्रश्न, जिसे एशियाइयोंकी अन्तिम चेतावनी[१] कहा गया हैं, और जिसे मैं एशियाइयोंका निवेदन कहूँगा, वस्तुतः प्रशासनिक कार्य है, कानूनी मसले नहीं। सरकारको मान जाना चाहिए था। अन्य प्रश्न इतने तुच्छ हैं कि उनकी चर्चा व्यर्थ है। मैं तो यही अनुभव करता हूँ कि इन छोटे-छोटे मसलोंके कारण एक विधेयक, जो अन्यथा प्रशंसनीय है, जहाँतक मैं समझता हूँ, नष्ट हो जायेगा। मेरे देशवासी नये विधेयककी धाराओंके लाभ तबतक नहीं उठायेंगे जबतक उन अन्यायोंका निराकरण नहीं हो जाता जिनका जिक्र मैंने किया है; और इसी कारण दुर्भाग्यवश अनाक्रामक संघर्ष जारी रखना होगा। मुझे सलाह दी गई है कि अनाक्रामक संघर्ष-रूपी संकटका नेतृत्व न करूँ, किन्तु मैं एक ऐसे व्यक्तिके नाते, जो हर चीजके मुकाबले अपने अन्तःकरणको प्राथमिकता देता है या देनेका प्रयत्न करता है, सम्भवतः यह सलाह स्वीकार नहीं कर सकता, परिणाम चाहे जो हों।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २९-८-१९०८

२८२. भेंट: 'ट्रान्सवाल लीडर' को

[ जोहानिसबर्ग
अगस्त २१, १९०८ ]

नये विधेयकके विषयमें कल [ २१ अगस्त ] जब श्री गांधीसे भेंट की गई और उनकी राय पूछी गई तो उन्होंने कहा:

मैं स्वीकार करता हूँ कि यह विधेयक उस विधेयककी तुलनामें बहुत सुधरा हुआ है जिसका उद्देश्य स्वेच्छया पंजीयन करानेवालोंके पंजीयनको कानूनकी स्वीकृति देना था। वह विधेयक तो निःसन्देह समझौतेकी प्रायः सारी शर्तोंका उल्लंघन होता। 'स्टार' पत्रमें इस नये विधेयकका जो सारांश प्रकाशित हुआ है उसे सरसरी निगाहसे देखनेसे मालूम होता है कि उसमें उन मुद्दोंका समावेश हुआ है जिनकी चर्चा प्रगतिवादी नेताओं और हैटफोककी सभाके साथ हुई भेंटमें हुई थी। लेकिन मुझे डर है कि यह नया विधेयक भी एशियाई सम्मेलन द्वारा प्रस्तावित शर्तोंको पूरा नहीं करता। सम्मेलनने दो चीजोंकी माँग की थी---एशियाई संशोधन कानून रद कर दिया जाये और उच्च शिक्षा पाये हुए एशियाइयोंको प्रवेशकी अनुमति दी जाये। बहुत अफसोसकी बात है कि सरकार इन अत्यन्त सीमित रियायतोंको देनेके लिए भी राजी नहीं हो सकी। ये दो मुद्दे ब्रिटिश भारतीयोंके लिए बहुत ज्यादा महत्त्व रखते हैं लेकिन मेरी रायमें उपनिवेशियोंकी दृष्टिसे उनका कोई महत्त्व नहीं है। मैं कानून और उसके परिणाम समझता हूँ। इसलिए मैं खुद तो इस स्थितिको स्वीकार कर सकता

 
  1. देखिए "पत्र: जनरल स्मट्सको ", पृष्ठ ४४५-४६; "पत्र: ई० एफ० सी० लेनको", पृष्ठ ४५६-५९ और पृष्ठ ४५६ पर पादटिप्पणी १।
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