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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

था कि १९०७ के एशियाई कानूनके साथ मौजूदा विधेयक केवल एक निःसत्व कानूनके रूपमें बना रहे; लेकिन मेरे देशवासी इस जटिल भेदको नहीं समझ सकते। उनके लिए कोई भी कानून मृत-कानून नहीं है। बृहस्पतिवारके दिन सम्मेलनमें इस सवालपर वे जिस जोशसे बोले उससे मेरे लिए इस विधेयकके सम्बन्धमें उनकी भावनाकी गहराई स्पष्ट हो गई। इसलिए जब हम इस बातमें अपनी स्वेच्छासे सम्मति प्रगट करते हैं कि एशियाई कानून संशोधन अधिनियमकी वे सारभूत धाराएँ, जहाँतक वे एशियाई आबादीपर नियन्त्रण रखनेके लिए आवश्यक हैं, दुबारा रची जा सकती हैं, तब पूर्ववर्ती कानूनको रद करने की माँगको स्वीकार न करनेका मुझे कोई कारण दिखाई नहीं देता। यह सही है कि चूँकि इस अधिनियमपर इतना ज्यादा विवाद हो चुका है इसलिए उपनिवेशी कानूनकी पुस्तकमें उसके कायम रखे जानेकी माँग उतने ही जोरसे कर सकते हैं जितने जोरसे मेरे देशवासी उसके रद किये जानेकी माँग करते हैं। लेकिन यूरोपीय उपनिवेशियोंके प्रतिनिधि इतने समझदार हैं कि वे यह बात आसानीसे देख सकते हैं कि यदि उपनिवेशके प्रयोजन अधिनियमको रद करनेसे उतनी ही अच्छी तरह सिद्ध होते हों तो उसके रद किये जानेपर उन्हें कोई आपत्ति न हो।

उच्च शिक्षा पाये हुए भारतीयोंके अधिकारोंकी मान्यताका सवाल भी उतना ही सरल है। शिक्षित भारतीयोंके भी अनियन्त्रित प्रवेशकी कोई माँग नहीं है। ब्रिटिश भारतीय मानते हैं कि अधिनियमका पालन करानेके सम्बन्धमें उपनिवेश-सचिवको अपने विवेकका उपयोग करनेकी पूरी सत्ता दी जानी चाहिए किन्तु वे कहते हैं, और मेरा खयाल है कि उनका कहना सर्वथा न्यायोचित है, कि उच्च योग्यताओंवाले यूरोपीयों और एशियाइयोंमें कोई भी भेद न किया जाये।

इन छोटे मुद्दोंके कारण एक अन्यथा अच्छे विधेयकको निष्फल कर देना और एशियाइयोंके असन्तोषको कायम रखना बड़े अफसोसकी बात होगी।

दूसरी बातें, सच पूछा जाये तो, मात्र तफसीलकी हैं; वे विधेयकको छूती भी नहीं हैं। मेरी रायमें मेरे देशवासियोंसे यह आशा करना कि वे श्री सोराबजीका, जिन्होंने देशके लिए इतना कष्ट सहा है, बलिदान कर दें, बहुत अन्यायकी बात होगी। लेकिन सरकारने इस बातको, कि श्री सोराबजीने कानूनको भंग करके प्रवेश किया है इसलिए उन्हें सजा होनी ही चाहिए, सिद्धान्तका सवाल बना लिया है। उन्हें एक माहका कारावासका दण्ड दिया गया था और इस तरह उन्होंने सजा भुगत ही ली है। किन्तु--यदि निर्वासनकी विधि पूरी की गई--यदि सोराबजीको देशसे इसलिए निर्वासित कर दिया गया कि उनपर निष्कासनका आदेश जारी था, तब तो यह आदेश मुझपर और दूसरे कई भारतीयोंपर भी जारी था। लेकिन सरकारने हमें न छूना ठीक समझा है।

मैंने एक इस आशयका वक्तव्य देखा है कि हम लोग अपनी माँगोंमें दिन-प्रतिदिन ज्यादा ढीठ होते जा रहे हैं। जो बात सत्यके विपरीत है उसपर जोर देनेका यह एक अच्छा तरीका है। अधिनियमको रद करनेकी माँग उतनी ही पुरानी है जितना कि स्वयं अधिनियम, और यदि मैं स्वयं अपने देशवासियोंके समक्ष इस शर्तपर कि अधिनियम निःसत्व माना जायेगा, नये विधेयककी बात रखनेके लिए तैयार हो गया तो इसे ढिठाई नहीं कहा जा सकता। कारण, मेरे देशवासियों द्वारा ऐसे किसी भी प्रस्तावको अस्वीकृत करनेका आशय यह था कि वे हमेशा अधिनियमको रद करानेके लिए लड़ते रहे हैं। सामान्य शिक्षाकी कसौटी प्रवासी-