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भाषण: सार्वजनिक सभामें

आपको बता दिया है कि हमने कोई नई माँग नहीं पेश की है। हमने कभी अपनी बात नहीं छोड़ी है। बल्कि हमपर जो एकके बाद एक मुसीबतें ढाई जा रही हैं वे हमें मजबूर कर रही हैं कि जिन बातोंको हमने सौजन्यवश पहले दरगुजर कर दिया था, धीरे-धीरे और क्रमशः उनपर पुनः आरूढ़ हो जायें। हमें २०० से अधिक आदमियोंको जेलके कष्ट झेलनेके लिए भेजना पड़ा, तब जाकर जनरल स्मट्सने यह स्वीकार किया कि उनका कानून सदोष और अव्यवहार्य है और उसे विधि-संहितामें से निकालना पड़ेगा। इसी प्रकार लगभग १०० दूसरे आदमियोंको पुनः जेल जाना पड़ा, तब जाकर हमें वह चीज प्राप्त हो सकी जो वैधीकरण विधेयकके रूपमें आ रही है। मुझे यह स्वीकार करनेमें कोई संकोच नहीं है कि यह नया विधेयक पुराने एशियाई कानूनसे कहीं अच्छा है। उसके अन्दर जो चिढ़ पैदा करनेवाली धाराएँ थीं, उनमें से बहुत-सी हटा दी गई हैं। वह जबरदस्त धार्मिक आपत्ति हट गई; हमारी शपथकी रक्षा हो गई। इसके लिए सरकारको बधाई है, प्रगतिवादी दलको बधाई है। अतः अब मैं अपने देशभाइयोंसे कह सकता हूँ कि अगर उन्हें किसी खास सिद्धान्तके लिए नहीं लड़ना है बल्कि उनकी इच्छा संसारको यह दिखानेकी रही है कि वे केवल इसलिए लड़ रहे हैं कि अपने गम्भीर कर्तव्यको निभा सकें और इसलिए नहीं कि इस देशमें अपने दर्जेको कायम रख सकें तो मैं उनको खुली सलाह दे सकता हूँ कि वे इस वैधीकरण कानूनको मान लें। परन्तु अगर उनकी इच्छा यह हो---जैसी कि मुझे सदा आशा रही है---कि हमने यह लड़ाई किसी व्यक्तिगत लाभके लिए नहीं बल्कि एक अथवा अनेक सिद्धान्तोंके लिए छेड़ी है, तो मैं अपने देशभाइयोंसे निःसंकोच कहूँगा कि वे और भी अधिक कष्ट सहन करें। परन्तु वे सब मिलकर चाहें तो ऐसा करें या न करें। अगर अधिकांश एशियाई चाहें कि सरकारने---जैसा कि वह कहती है---"उदारतापूर्वक" जो दिया है वे उसका लाभ उठा लें तो वे अवश्य ऐसा करनेके लिए स्वतन्त्र हैं। परन्तु जबतक मैं इस देशमें हूँ, मैं सरकारके इन कानूनोंका विरोध उस समय तक करना चाहता हूँ जबतक हमें वह अन्याय-परिशोध नहीं मिल जाता जिसके हम अधिकारी हैं, जबतक जनरल स्मट्सने एशियाई कानूनकी समाप्तिसे सम्बन्धित उस वचनको, जो मैं अब भी कहता हूँ कि उन्होंने दिया था, पूरा नहीं करते और जबतक ऊँची शिक्षा पाये हुए एशियाइयोंके अधिकार मजबूत नींव पर स्थापित नहीं कर दिये जाते। हमारी ये माँगें नई नहीं हैं। उपनिवेशी या सरकार बूँद-बूँद करके हमें थोड़ा-सा देकर उपनिवेशियोंको यह विश्वास कराना चाहती है, मानो वह ऐसी रियायतें दे रही है जिनको देनेकी उसे आवश्यकता नहीं थी। परन्तु मैं इस स्थितिको बिलकुल स्वीकार नहीं करता। मेरा रुख वही है जो सभापतिका है। ये दो माँगें पूरी होंगी तभी वह प्राप्त होगा जो हमारा अधिकार था या जो हमारा अपना होना चाहिए था। एक और बातकी तरफ मैं आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ। खुद जनरल स्मट्सने अब हमसे और संसारसे कहा है कि दक्षिण आफ्रिकाके वतनियोंके---जूलू और बन्टू लोगोंके साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जाता है जैसा यूरोपीयोंके साथ किया जाता है, बशर्तेकि वे भी यूरोपीयोंकी तरह सुशिक्षित हों। परन्तु गरीब भारतीय और गरीब चीनी इस व्यवहारके पात्र नहीं हो सकते ( "शर्म-शर्म" की आवाजें! ) । अगर दक्षिण आफ्रिकाके वतनियोंके विरुद्ध रंग-भेद नहीं है तो वह ब्रिटिश भारतीय या चीनीके विरुद्ध क्यों होना चाहिए? उनके विरुद्ध यह भेद क्यों लागू किया जाना चाहिए और उन्हें इस रंग-सम्बन्धी निर्योग्यताके अन्तर्गत क्यों