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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कष्ट पाना चाहिए? ब्रिटिश भारतसे भारतीयोंका प्रवाह पूरी तरह बन्द करना हमने मंजूर कर लिया, इतना बहुत काफी है। परन्तु इस प्रवाहके बन्द करनेका अर्थ यह नहीं है---कभी था भी नहीं---कि शिक्षित भारतीयोंके लिए भी इस देशके दरवाजे बन्द कर दिये जायेंगे, या वे केवल गवर्नरकी इजाजत मिलनेपर ही आ सकते हैं और उसको देना या न देना पूर्णतः उनकी खुशीपर निर्भर है। हम इतने दिनोंसे इसी स्थितिके लिए नहीं लड़ रहे हैं और अगर हम इन्सान कहलाना चाहते हैं, तो इस स्थितिको हम कभी स्वीकार नहीं कर सकते। जब हम यह रवैया अपनाते हैं तो यह कोई चुनौतीका रवैया नहीं होता और दरअसल मुझे यह देखकर अत्यन्त दुःख होता है कि सर पर्सीको इसकी ओर, बहुत सूक्ष्मतासे ही सही, संकेत करना वांछनीय प्रतीत हुआ कि आगे-पीछे इस उपनिवेशमें अन्तर्जातीय संघर्ष हो सकता है। जातीय संघर्ष तो अभी हो रहा है। जातीय संघर्ष होनेका और अर्थ क्या हो सकता है, यह मैं नहीं जानता। परन्तु मैं इतना तो जानता ही हूँ कि अगर उसके अन्तर्गत शारीरिक हिंसा आ जाती है तो मैं यहाँ अपने देशभाइयोंके इस समुदायके सामने खड़ा होकर कहता हूँ कि आप इस तरहके शारीरिक प्रहारोंको भी सह लें। मेरे सामने मेरे ये देशभाई---ये तमिल सज्जन ---हैं। उनकी घायल पीठें मैंने देखी हैं। बालूकी बोरियाँ उन्होंने कभी नहीं ढोई। परन्तु फिर भी जेलके नियमोंके अन्तर्गत उन्होंने यह शारीरिक कष्ट सहा है। जनरल स्मट्सने उन कमजोर लोगोंसे, जिनकी कोई आवाज नहीं, लड़नेमें जेल अधिकारियोंको यह आज्ञा देनेकी कृपा नहीं की कि वे इन कैदियोंसे सख्त मेहनत न लें या उतनी ही सख्त मेहनत लें जिसे वे सह सकें। परन्तु नहीं, हमें कष्टोंका यह प्याला पूरा ही पीना होगा। मैं अपने देशभाइयोंसे कहता हूँ कि अगर उन्हें किसी सिद्धान्तके लिए लड़ना है तो वे इस प्यालेको पी जायें। मैं घोषणा करता हूँ कि हमारी लड़ाई---मेरी लड़ाई---सदा सिद्धान्तकी लड़ाई रही है और वह सिद्धान्तकी ही रहेगी भी। जनरल स्मट्स कहने लगे हैं कि हम साझेदारी चाहते हैं।[१] हम साझेदारी जरूर चाहते हैं। मैं उसका दावा अब भी करता हूँ, परन्तु एक छोटे भाईकी हैसियतसे। उनका ईसाई धर्म उन्हें सिखाता है कि हर मनुष्य भाई है। ब्रिटिश संविधान हमें यह सिखाता है, जब मैं निरा बच्चा ही था तब उसने मुझे सिखाया था, कि प्रत्येक ब्रिटिश प्रजाजन कानूनकी निगाहमें समान माना जायेगा और मैं ट्रान्सवालमें भी कानूनकी निगाहमें उसी समानताकी माँग करता हूँ। जबतक ट्रान्सवालपर ब्रिटिश झंडा फहराता है और जबतक मुझे ट्रान्सवालमें रहने दिया जाता है तबतक मेरा यह आन्दोलन बराबर जारी रहेगा, और तबतक जारी रहेगा जबतक ब्रिटिश भारतीयोंको कानूनकी दृष्टिमें वह समानता प्राप्त नहीं हो जाती। सवाल केवल समयका है, परन्तु वह समानता तो मिलेगी ही। सम्भव है, हमें वह न भी मिले, तब शायद हम इस देशसे बाहर निकाल दिये जायेंगे और मुझे उससे पूरा सन्तोष होगा। अगर ब्रिटिश सरकारका यह रुख है और ट्रान्सवाल सरकारका भी यही रुख है तो मैं उस स्थितिको स्वीकार करनेके लिए बिलकुल तैयार हूँ जो संसदने ग्रहण की है, अर्थात् यह कि गोरे उपनिवेशी---संसद---न्यासीका स्थान ले लें, क्योंकि हम आश्रित हैं और क्योंकि संसदमें हमारा कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। मैं इस स्थितिको मंजूर करता हूँ। परन्तु न्यासीका कर्तव्य इसके सिवा और क्या हो सकता है कि वह अपने आश्रितको उन सब कार्योंके योग्य बना दे जिन्हें वह उसके लिए करता है। क्या सरकार हमको---अपने आश्रितोंको---

 
  1. जनरल स्मट्सके भाषणके लिए देखिए परिशिष्ट १०।