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जनरल स्मट्सका भाषण

जनरल स्मट्स नहीं जानते। फिर वे कहते हैं कि यह उनका निजी विचार है। स्थानिक सरकार क्या करेगी, इसकी भी जनरल स्मट्सको खबर नहीं है। ऐसा भाषण तो मूर्खतापूर्ण ही कहलायेगा। जनरल स्मट्स गुस्सेमें हैं। उन्हें होश नहीं है, इसलिए जो चाहे सो कहते हैं।

वे भारतीयोंके प्रति नफरत भी साफ-साफ जाहिर करते हैं। 'कुली' शब्दका निःसंकोच उपयोग करते हैं। हम "कुछ हद तक ही" ब्रिटिश-प्रजा हैं—ऐसा कहते हैं। यह एकदम नई बात है। आजतक तो हम ब्रिटिश प्रजा थे, किन्तु अब केवल थोड़े-बहुत ब्रिटिश प्रजा ही माने जा रहे हैं। इसके सिवा यह कहते हैं कि आजतक बड़ी सरकारके हस्तक्षेपके कारण वे हमें बस्तियोंमें नहीं भेज पाते थे, अब वे आशा करते हैं कि भारतीयोंको बस्तियोंमें भेजना सहज बात है। फिर कहते हैं कि श्री गांधीकी गिरफ्तारी के बाद बहुतसे भारतीयोंने कहा है कि वे पंजीयन करानेके लिए तैयार हैं।

इस सबका क्या अर्थ किया जाये? यह तो प्रकट है कि भारतीय समाजने जनरल स्मट्सको भी कुछ करिश्मे दिखा दिये हैं। वे महोदय स्वीकार करते हैं कि गत मार्च महीने में उन्हें आशा नहीं थी कि भारतीय समाज इस प्रकार मुकाबला करेगा और इतनी शक्ति दिखायेगा। फिर भी उनकी धारणा है कि भारतीय समाज केवल दो-चार नेताओंके बहकावे में आ गया है। नेतागण तो जेल जायेंगे; फिर क्या भारतीय समाज डरकर कायर बन जायेगा? यदि वह न डरे और हिम्मत बनाये रखे तो अंधा भी देख सकता है और बहरा भी सुन सकता है कि, जनरल स्मट्ससे कुछ होना-जाना नहीं है। यही महोदय फरमाते हैं कि उपाय भारतीय समाजके हाथमें ही है। सचमुच बात ऐसी ही है। केवल अन्तर इतना ही है कि श्री स्मट्सके कथनानुसार इलाज है, तत्काल गुलामीकी माला पहन लेना; हमारे कहनेके मुताबिक आजादी-मर्तबा-आबरू-स्वतन्त्रता-खुदा-ईश्वरका भय-रूपी सुगन्धित माला धारण करना, यह उपाय भारतीयोंके हाथमें है। लक्ष्मी तिलक लगाने आँगन में आई है तो क्या ऐसे अवसरपर भारतीय मुँह फेर लेंगे? बात यह है कि पंजीयनका विचार स्वप्न में भी न किया जाये; बेधड़क होकर व्यापार करें; ऐसा करते हुए जेल जाना पड़े तो जायें; देश-निकाला हो तो भी ठीक। ऐसा करनेपर इन दोमें से एक भी आफत नहीं आयेगी। और यदि आती भी हैं तो अनिवार्य पंजीयनकी बलाके मुकाबलेमें ये आफतें बहुत अच्छी हैं।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ११-१-१९०८

१. दिसम्बर २७, १९०७ को; देखिए खण्ड ७, पादटिप्पणी २, पृष्ठ ४४४ ।