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१०. रामसुन्दर

रामसुन्दरका सम्मान करनेके कारण हमें काफी सुनना पड़ा है। हमारे पास कुछ पत्र भी आये हैं। कोई बताता है कि वह गिरमिटिया है; कोई कहता है कि उसने बहुत-से आदमियोंको ठगा है; कोई कहता है कि ऐसे आदमीको इस प्रकारका बादशाही सम्मान दिया गया, इसलिए भारतीय कौम अब दुबारा किसी नेताकी कुछ सुननेवाली नहीं है। ऐसे आदमीके वास्ते दूकानें बन्द की गई, यह भारी भूल समझी जाये; और अब दुबारा चाहे कैसे ही भारतीय के लिए कहा जाये तो भी दूकानें बन्द होनेकी आशा कोई न रखे। फिर कुछ लोग इसे मौका मानकर हिन्दू और मुसलमानोंके बीच खाई पैदा करनेकी ताकमें हैं। हम इसे इन सबकी भूल समझते हैं। यदि रामसुन्दर गिरमिटिया होता और यह जानकर कौम उसे सच्ची बहादुरी के लिए मान देती, तो इसमें कौमकी अधिक शोभा मानी जाती। गरीबीमें दोष नहीं है, इसी प्रकार गिरमिटिया होने में भी नहीं है। गिरमिटिया महान् वीरता दिखायें, तो इसे भारतीय अधिक गौरवकी बात समझें, क्योंकि इससे ऐसा सुअवसर आ सकता है कि उनसे अच्छी स्थितिवाले व्यक्ति और भी बढ़कर पराक्रम दिखायें। किन्तु रामसुन्दर गिरमिटिया था अथवा कर्जदार था या नहीं, इस बातका कौमको पता नहीं था। इसकी उसे परवाह नहीं थी। जो काम उसने किया, जो भाषण उसने दिये वे सब प्रशंसाके योग्य थे। बादशाही सम्मान रामसुन्दरको नहीं दिया गया, बल्कि एक महीना जेल भोगनेवालेको दिया गया। दूकानें बन्द रहीं वे रामसुन्दरके लिए नहीं, परन्तु एक भारतीयको व्यर्थमें जेल दी गई, इसपर शोक प्रदर्शित करने और हमारे ऐक्यकी सबपर छाप डालने के लिए। दुकान बन्द करनेका और बादशाही सम्मान देने का लाभ भारतीय कौमको मिल चुका है। उसका जो लाभ रामसुन्दरने पाया था उसे वह खो बैठा है। हमने जो सम्मान दिया है वह उस व्यक्तिको नहीं बल्कि उस व्यक्ति में निहित हमारे माने हुए सत्य और साहसको दिया है। सार यह कि, रामसुन्दरके बारेमें जो कुछ भी किया गया वह करने योग्य था। अब जब कि हम यह देख चुके हैं कि वह आदमी चालबाज है तब उसका तिरस्कार कर रहे हैं। यह भी उचित है। इस प्रकार दुनिया में सदा से होता आया है। मद्रासका अरबथनॉट' जबतक प्रामाणिक माना जाता था तबतक वह राजा और प्रजाका प्रियपात्र था। जब उसका भण्डाफोड़ हुआ तब उसी साहबपर मुकदमा चला और उसे जेल हुई। जब हम प्रत्येक मामलेमें नित्य सत्य-असत्यका भेद रखने लगेंगे तभी यह माना जायेगा कि हम योग्य हुए और तभी हम प्रत्येक मामलेमें जीतेंगे। हिन्दू-मुसलमानके बीच में डाले जाने वाले भेदके सम्बन्धमें हम अधिक कहना नहीं चाहते। लेकिन ऐसा भेद डालना बड़ी नादानी है, इसमें कोई शक नहीं है। जहाँ दोनोंका स्वार्थ एक-सा है और जहाँ धर्मकी बात नहीं है वहाँ हिन्दू-मुसलमानका भेद क्यों उठा करता है, यह बात हमारी समझ से परे है।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ११-१-१९०८

१. देखिए "रामसुन्दर पण्डित", ४-५ ।

२. विख्यात साहूकार सर जॉर्ज अरबथनॉट, जो छ: बार फोर्ट सेंट जॉर्जकी विधान परिषदका सदस्य और सात बार मद्रास व्यापार संघका अध्यक्ष चुना गया था। अपना बैंक ठप हो जानेपर उसने दिवालियेपनकी अर्जी दी थी। मई १९०७ के प्रारम्भ में उसपर धोखा देने और विश्वासघात करनेके जुर्म में मुकदमा चलाया गया था। इंडिया, मई १०, १९०७ ।