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परिशिष्ट ३

सत्याग्रहकी आचार-नीति

पुरस्कृत निबन्ध

श्री एम० एस० मॉरिस

उन्नीस शताब्दियोंके पूर्व आध्यात्मिक गतिविधियोंके एक तत्कालीन प्रमुख केन्द्रमें संसारके एक अत्यन्त महान् पुरुषने प्रस्थापित सत्ताके विरुद्ध सत्याग्रह करते हुए अपने प्राणोंका उत्सर्ग किया था। सत्याग्रहका आधार निःसन्देह न्यायसंगत था; क्योंकि जहाँ आदमीके बनाये हुए कानूनों और अन्तःकरणके उच्चतर नियमोंमें संघर्ष न हो, वहाँ आज भी वह मानवीय नियमोंके निष्ठापूर्ण पालनके स्मरणीय और सजीव उदाहरणकी भाँति मान्य है। सत्याग्रहका सम्बन्ध इस आज्ञासे था कि किसी मानवोत्तर अथवा देवी शक्तिमें ज्वलन्त श्रद्धा न रखी जाये और अमुक जातिपर अपनी आध्यात्मिक सत्ताका दावा वर्तमान ऐहिक सत्ताके पक्षमें छोड़ दिया जाये। "हमने देखा है कि यह व्यक्ति राष्ट्रको गुमराह करता है और अपने आपको खीस्त---और राजा---कहकर सीजरको राजस्व देनेसे रोकता है।" ईसाने पाइलेटके[१] प्रश्नका उत्तर देनेके पहले उससे पूछा कि क्या यह प्रश्न उसने अपने मनसे किया है; और फिर कहा कि "मेरा राज्य इस दुनियाका नहीं है: यदि मेरा राज्य इस दुनियाका होता तो मेरे सेवक लड़ाई लड़ते।" उनका क्रूसपर चढ़ा दिया जाना बराबर इतिहासकी एक अनोखी घटना मानी जाती रही है। कानूनकी अवज्ञा किसे कहते हैं, वह इस बातका शानदार उदाहरण है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जिस सत्ताने उन्हें मृत्यु-दण्ड दिया उसकी प्रामाणिकता सन्दिग्ध थी। इसमें दो मत नहीं थे कि दण्ड अवैध था। वह निर्मम, अनुचित और हद दरजे तक कठोर था और ईसा इस दण्डके पात्र बिलकुल नहीं थे। किन्तु जिसने उस प्रचलित कानून और उसे कार्यान्वित करनेवाले शासन-तन्त्रके अधीन रहनेमें अपनी अन्तरात्माका अपमान देखा उसने भीतरकी पुकारके अनुसार उस कानून और शासन-तन्त्रका अनाक्रामक प्रतिरोध करना अपना अधिकार समझा। उनका शरीर-बल द्वारा प्रतिरोध करनेका कदापि इरादा नहीं था। कानूनके विरोधमें उनके सेवकों और अनुयायियोंके संगठित होकर उठ खड़े होनेका अर्थ होता उनके अपने विश्वासका सीधा खण्डन। संगठित शारीरिक शक्तिके द्वारा अपने दावेकी स्थापना करना उनके अपने नैतिक चरित्र और उच्च ध्येयकी अवमानना होती। उन्हें अपने सर्वव्यापी नैतिक प्रभावके कारण ऐसा प्रबल समर्थन प्राप्त था कि यदि उसका वे उपयोग करते तो वह अपनी सहज शक्तिके कारण ही दुर्निवार और अपराजेय सिद्ध होती। इसीलिए उन्होंने उन आशाओंके उल्लंघन करनेके अपराधमें दिये गये भयंकर दण्डको शिरोधार्य करके उस कानूनका विरोध करना ठीक समझा जो उनकी समझमें अनुचित था।

मसीही इतिहासके उसी दौरमें ईसाकी मृत्युके थोड़े ही महीनोंके भीतर, एक सन्त पुरुष अपने विरोधियोंके हाथों शहीद हुए। उनपर 'मूसा और ईश्वरकी निन्दा' करनेकी तोहमत लगाई गई; किन्तु वह व्यक्ति सत्याग्रही सिद्ध हुआ। उसके विरोधियोंने खुली हिंसाका रास्ता अपनाया। वे उसे नगरके बाहरतक घसीटते हुए ले गये और फिर वहाँ उसे पत्थर मार-मारकर मार डाला गया। स्टीफेनको रास्तेसे हटा देनेके बाद यरूशलममें ईसाइयोंपर खुले आम अत्याचार किया जाने लगा। स्त्री और पुरुष पकड़-पकड़ कर जेलोंमें ठूँसे जाने लगे। इस तरह सत्याग्रहको दैवी समर्थन प्राप्त हुआ और लोगोंने अत्याचार, अन्याय और दमनके विरुद्ध एकमात्र कारगर शस्त्रके रूपमें उसे ग्रहण किया। जिस प्रकार धार्मिक क्षेत्रमें आत्म-चेतनाका दण्ड शहादत था उसी प्रकार सामाजिक क्षेत्रमें भी। जिन लोगोंके मनों और अन्तरात्माओंमें दमनकारी कानूनों और पुरुषत्वके श्रेष्ठ गुणोंको पीस कर मानवता का पतन करने-

 
  1. पांटियस पाइलेट, जिसने ईसाको सूलीपर चढ़ानेकी सजा सुनाई थी।