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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वाले कानूनोंके प्रति विद्रोह जागता है वे अनाक्रामक प्रतिरोधका सहारा लेते हैं क्योंकि यह आहत आत्माको राहत देनेवाला सबसे प्रभावकारी मरहम है।

"जिस समाजका आधार इस जमानेमें भी असमानता और अन्याय है, जहाँ गरीबोंके दुःखकी नींवपर श्रीमानोंके स्वर्ग रचे जाते हैं, जहाँ सुख तो मिला ही नहीं, प्रतिष्ठा भी तिरोहित हो गई है, समझमें नहीं आता वह किस प्रकारका समाज है।"

हमें खेदके साथ विक्टर ह्यूगोके इस कथनसे सहमत होना पड़ता है। टॉलस्टॉय तथा ह्यूगो निस्सन्देह ऐसे महान चिन्तक हैं जिन्होंने इस युगमें मानव समाजकी गम्भीरतम समस्याओं पर मनन किया है। अमेरिकाके एक बहुत बड़े नीतिज्ञ और 'ड्यूटी ऑफ सिविल डिसऑबीडिएन्स' के लेखक थोरोने अपने उन सिद्धान्तोंके लिए अपने प्राणोंकी बलि दे दी, जो उन्होंने राज्यके प्रति उच्चत्तम कर्तव्य-भावनाकी प्रेरणा और अन्तरात्माके निर्देशपर अपनाये थे। मनुष्यकी मान्यताएँ चाहे सही हों चाहे गलत, किन्तु मनुष्यकृत नियमोंका निर्वाह करनेकी सदा हमारी एक सीमा होती है। किसी भी आधुनिक जापानीमें अप्रतिम व्यक्तिगत साहस और नैतिक सदाचारको पराकाष्ठा होती है; आज इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। उसके ये गुण विगत कुछ वर्षोंमें हमारे सामने विभिन्न रूपोंमें आये हैं। जापानका 'बुशिदो'[१] हमें भले ही अन्ध-विश्वास लगे, किन्तु उसके सच्चे अर्थ और गूढ़ भावको हमारे युग गम्भीर चिन्तकोंने भी समझा और सराहा है। वे जानते हैं कि 'बुशिदो' मानवताके मर्मको छूता है। जापानी आचार-शास्त्रके वास्तविक नैतिक पक्षको भलीभाँति समझनेके बाद जब हम स्वत: यह अनुभव कर लें कि विकासके नियमानुसार पहलेके जापानीसे आजका सुसंस्कृत जापानी कितना भिन्न प्राणी है, तब हमारे लिए यह समझना सरल होगा कि कठिन परीक्षाके क्षणोंमें, जब देशप्रेम और परिवारकी भावना बलवती होती है, वह अपनी अन्तरात्माके निर्देशोंका निष्क्रिय प्रतिरोध क्यों करता है; क्यों वह अपनी प्राण-रक्षा करनेसे इनकार करता हैं, और क्यों केवल इसलिए अपने भौतिक विनाशके लिए नैतिक निषेधोंका माया-जाल बुनता रहता है कि उसे राष्टके उद्धारक और पुनर्जीवन देनेवालेका अमरपद प्राप्त हो।

राजनीतिक शास्त्र और नैतिक क्रियाके रूपमें अनाक्रामक प्रतिरोधका औचित्य असंदिग्ध है। जो मान्य सत्ता किसी अच्छे या बुरे कानूनको बलपूर्वक लागू करनेकी चेष्टा करती है उसके विरुद्ध शारीरिक बलका प्रयोग नैतिक दृष्टिसे गलत होगा। किन्तु जब आप कानूनका प्रतिरोध सक्रिय ढंगसे नहीं, निष्क्रिय ढंगसे करते हैं तब आपका अभिप्राय केवल यह जाहिर करना होता है कि वह कानून कुछ लोगोंकी दृष्टिमें अच्छा और न्यायसंगत होकर भी कुछ लोगोंके लिए खराब हो सकता है। जबतक मनुष्यकी स्थापित की हुई संस्थाएँ हैं तबतक सबल अंत:करण और तर्कसंगत विचार रखनेवाले अपूर्ण मानव विषम भेदभावयुक्त राज्यादेशोंके विरुद्ध रोष प्रकट करनेका यह तरीका अपनाते रहेंगे।

शासनतन्त्रके किसी भी रूपमें सत्ता चन्द व्यक्तियोंको इसलिए सौंपी जाती है कि वे ईमानदारीसे निर्णय लें तथा बिना किसी भेदभावके न्यायपूर्वक शासन करें। कुछ लोगोंको सत्ता और कानून बनानेका अधिकार देने का यह मतलब कदापि नहीं होता कि वे बिलकुल दोषरहित हैं और उनसे गलती हो ही नहीं सकती। अक्सर ही ऐसा होता हैं कि समाजके श्रेष्ठ व्यक्ति, जिनमें दूसरोंसे अधिक मानवता, न्याय, व्यावहारिकता और विचारशीलता है, अपने सहनागरिकोंके शासक या कानून-निर्माता नहीं होते बल्कि कमतर लोगोंसे शासित होते रहते है। प्रायः देखा गया है कि शासनकी बागडोर अविचारी, होती है। यदि प्रमाणकी जरूरत समझी जाये तो वे लगभग सभी देशों सभी युगोंमें आसानीसे मिल सकते हैं। संसारके किसी अग्रणी देशकी एक ताजा मिसालके तौरपर मैं इंग्लैंडमें ऊँची शिक्षा प्राप्त लोगों द्वारा किये गये उस अनाक्रामक प्रतिरोधको सामने रखूँगा जो पिछले शिक्षा अधिनियमके विरोधमें किया गया था। इंग्लेंडकी शासन-प्रणाली ऐसी शासन-प्रणाली है जो पिछली अनेक शताब्दियोंसे उत्तरोत्तर निर्मल होती

 
  1. सैनिक आचार-संहिता।