पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/५२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४८९
परिशिष्ट

गई है। सभी स्वीकार करेंगे कि वहाँकी शासन पद्धति प्रजातन्त्रके लगभग चरम उत्कर्षपर पहुँच चुकी है; और वहाँ न्यायपूर्वक समताके आधारपर प्रतिभा और बुद्धिके बलपर, सत्ता प्राप्त की जाती है। इस शासन-प्रणालीमें नैतिक न्याय और औचित्य स्पष्ट दिखाई देते हैं। और फिर भी हम देखते हैं कि वहाँ एक ऐसा कानून लागू किया गया जो समाजके लिए हितकारी जान पड़ता था किन्तु जब उसपर अमल किया गया तो वह समाजके एक बड़े और प्रबुद्ध वर्गके लिए अहितकर सिद्ध हुआ और उसे उक्त वर्गने मान्य नहीं किया। यह वर्ग वैसे आज्ञाकारी वर्ग रहा है। और बहुतसे कानून हैं जिन्हें वह खुशीके साथ पूरी निष्ठासे स्वीकार करता है। किन्तु कुछ ऐसी बातोंके कारण, जिन्होंने हर युगमें मानवताको विचलित किया है, उस वर्गको लगा कि उसकी आत्मा इस नये कानूनके विरुद्ध विद्रोह करती है। इस नये कानूनने उस वर्गके लोगों के मनमें जबर्दस्त संघर्ष पैदा कर दिया: उसमें और उनके औचित्य-बोधमें लड़ाई छिड़ गई। अतः इस वर्गने इस कानूनको पालनेसे बिलकुल इनकार कर दिया और परिणामस्वरूप मिलनेवाले दण्ड स्वीकार किये।

कहा जाता है कि कानून जनताके हितोंके बचाव और संरक्षणके लिए बनाये जाते हैं, सताने और अत्याचार करनेके लिए नहीं। उनकी रचनाके पीछे सबके हितकी दृष्टिसे विवेक, आवश्यकता, और औचित्यकी भावना होनी चाहिए। उनसे किसीको हानि नहीं पहुँचनी चाहिए। निर्दयतापूर्वक तर्कबुद्धि और विवेककी परिधि लाँघना सर्वथा अनुचित है। कानूनका प्रयोग सावधानीके साथ न्यायोचित ढंगसे किया जाना चाहिए। "जो सीजरका है सो सीजरको अर्पित कर दो" के सिद्धान्तका यह अर्थ नहीं है कि कानूनके कहनेपर सब लोग शरीर और मनसे अपने आपको कानूनके आगे समर्पित कर दें। मैं उच्च विचार रखनेवाले और कानूनका पालन करनेवाले एक ऐसे समझदार व्यक्तिको जानता हूँ जिसने तीन बार कानूनको अस्वीकार कर दिया और अपने बच्चोंको टीका नहीं लगवाया और कानूनकी अवज्ञाके दण्ड-स्वरूप जुर्माना देना स्वीकार किया। नैतिक दृष्टिसे उसका अपने अन्तःकरणकी आज्ञा के अनुसार कानूनका उल्लंघन करना सही था। अपने अन्तःकरणकी शान्तिके लिए उसने अनाक्रामक प्रतिरोध किया। थोरोके शब्दों में "यह व्यक्ति पहले मनुष्य और फिर किसीकी प्रजा था। मनुष्यकृत कानूनका आँख बन्द करके पालन करनेसे पहले उसने अपने अन्तःकरण के कानूनका निर्देश माना। कानूनके प्रति अपने मनमें आदरकी भावना उत्पन्न करना उतना वांछनीय नहीं है जितना अधिकारके प्रति। मुझे केवल एक ही उत्तरदायित्व ग्रहण करनेका अधिकार है, और वह यह कि मैं किसी भी समय जो उचित समझें, वहीं करूँ।"

वास्तवमें अनाक्रामक प्रतिरोध (सत्याग्रह) ईमानदार आदमीके लिए अन्तिम मार्ग है। वह साधारणतया पशुबलके दबाव उस मार्गपर चलनेको विवश होता है; और इसलिए नैतिक आधारपर उसका कार्य अनुचित नहीं ठहराया जा सकता। यदि किसी राज्यमें किसी अल्पसंख्यक वर्गके लिए सत्याग्रह एक आवश्यकता बन जाता है तब बहु संख्यक वर्ग दीर्घकाल तक मजबूत नहीं बना रह सकता। उस अल्पसंख्यक वर्गके विरुद्ध अपनी शक्ति या अधिकारका प्रयोग करनेके मामलेमें, जहाँतक उसके कार्योंकी बात है, उसका कमजोर और अयोग्य बन जाना अवश्यम्भावी है। और उन पराधीनों के लिए तो, जो कानूनी या कानूनी तरीकेसे बनी सरकारकी कोई कानूनी इकाइयाँ भी नहीं है, किसी खास मामलेमें, सत्याग्रह करनेका और भी अधिक न्याय है, क्योंकि ऐसी सरकार उन इकाइयोंपर, जिनकी उसकी रचनामें कोई आवाज नहीं होती, न्यायतः बोझे या प्रतिबन्ध नहीं लाद सकती। किसी समुदायके एक खास वर्गपर कठिनाइयोंका इस प्रकार लादा जाना अत्याचार होगा और वह उस समुदायकी राजनीतिक बनावटके लिए अन्तमें जरूर ही खतरा पैदा कर देगा। उस हालतमें तो सरकारके अस्तित्वकी उपयोगिता ही शंकास्पद बन जायेगी।

सत्याग्रहकी आचार नीतिपर थोरोने जो लिखा है उसमें इतना जोर है कि सविनय अवज्ञाके विषयसे सम्बन्ध रखनेवाले कुछ प्रासंगिक वाक्य मैं यहाँ देता हूँ।

"न्यायविहीन कानून विद्यमान हैं: क्या हमें उनका पालन करके सन्तोष करना चाहिए; अथवा उनमें संशोधन करनेका प्रयत्न करना चाहिए और तबतक उनका पालन करना चाहिए जबतक सफलता न मिल जाये? अथवा क्या हमें उनका तुरन्त उल्लंघन करना चाहिए? सामान्यतया जो मनुष्य ऐसी सरकारके अधीन होते