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परिशिष्ट

किया गया, निन्दा की गई और तब उसे कानूनका सर्वोच्च दण्ड भोगनेकी सजा सुनाई गई। उन दिनों अन्तरात्माके कानूनकी कोई गिनती नहीं थी जैसा कि आज भी, जहाँतक मानवीय कानूनों और प्रशासकीय विधानोंका सम्बन्ध है, सभ्य सरकारके हमारे वर्तमान स्वरूपोंके अंतर्गत उसकी कोई गिनती नहीं की जाती। डेल्फीके भविष्य वक्ताने सुकरातको सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान मनुष्य घोषित किया था। इसपर उन्होंने यह लाक्षणिक घोषणा की कि, "जहाँ दूसरे लोग समझते हैं कि वे कुछ जानते हैं, वहाँ मैं सत्य ज्ञानके केवल इस तत्वतक पहुँच पाया हूँ कि मैं जानता हूँ कि मैं कुछ नहीं जानता।"

सत्याग्रह निश्चय ही पशुबलके सामने विरोधपूर्वक झुकना है। "बुराईका प्रतिरोध मत करो"---यह नाजरथके ईसाका कथन है और सुकरात विषपानके द्वारा उसका प्रतिरोध करनेसे बचे जिसे वे स्वयं अपने मानसमें बुराई समझते थे। प्लेटो, एक दूसरे प्रकाशमान यूनानी विद्वानके तत्वज्ञानसे इसका कितना मेल है, यह उस दुःखी मानवके निम्नलिखित भविष्यसूचक-चित्रसे प्रकट हो जायेगा, जिसकी पाश्चात्य संसारने इस प्रकार परिभाषा की है:

"एक आदमी है--पूर्णरूपसे पुण्यात्मा, सदाचारी और न्यायपरायण। ऐसा नहीं जो अपने साथियोंके समक्ष इस प्रकारका दिखाई देनेका इच्छुक हो, बल्कि ऐसा जो वास्तवमें और ईमानदारीके साथ इस प्रकारका है। हम उसके अच्छे नामसे उसे रहित कर देते हैं...उसकी आध्यात्मिक साधुताके अतिरिक्त और हर चीज़से हम उसे वंचित कर देते हैं। उसने कोई गलती नहीं की परन्तु हम कल्पना कर लेंगे कि वह अपराधी गिना जाये और उसके गुणोंकी अग्नि परीक्षा ली जाये।...न तो अपकीर्ति और न कुरीति, न तो गरीबी और न संकट, न तो द्वेषपूर्ण अत्याचार और न निर्दय उत्पीड़नका कष्ट उसे अपने कर्तव्य-मार्गसे विचलित कर सकता है। मृत्यु उसके मुखपर घूरती है परन्तु वह अडिग रहता है; उसे पापके रूपमें अंकित किया जाता है, परन्तु तब भी वह संत है।...इस चित्रको पूरा करनेके लिए हम कल्पना करेंगे कि यह देवी पुरुष डंडोंसे मारा जाये, फोड़ोंसे प्रताड़ित किया जाये, उत्पीड़ित किया जाये, जंजीरोंसे जकड़ा जाये, सूलीपर चढ़ाया जाये, पापियोंमें गिना जाये, और तब भी वह निरपराध रहता है।"

ईसाके आगमनसे तीन शताब्दी पूर्व प्लेटोने इस प्रकार लिखा था। एक आधुनिक सत्याग्रहीकी उनकी आगेकी परिभाषा दैवी-भावनासे उद्भूत है:

"एक बुरा आदमी प्रत्येक सांसारिक सुविधाके होते हुए भी दुःखी है; एक अच्छा आदमी सब तरफसे प्रताड़ित है तब भी खिन्न नहीं; उद्विग्न होता है पर निराश नहीं; प्रताड़ित है पर व्यक्त नहीं, पद-दलित है परन्तु विनष्ट नहीं।"

हमारे समयके अधिकांश जन फाउंट टॉलस्टॉयको उल्टी बात कहनेवाला मानते हैं। परन्तु सर्वस्वीकृत यह है कि वे यदि पूर्ण द्रष्टा नहीं तो एक महान् विचारक अवश्य हैं। उन्होंने निश्चय ही मानवता की गहराइयोंकी थाह ली है। उन्होंने बहुतेरी मानवीय मूर्खताओं और दुर्बलताओंको बेनकाब कर दिया है। युद्ध और फाँसीकी सजाको वे अत्यन्त भयंकर मानते हैं। वे उग्र विचारोंके हो सकते हैं, तथापि वे यथार्थवादी-बुद्धिवादी हैं। अनाक्रामक प्रतिरोध उनके लिए लगभग अन्ध-विश्वासकी बात है।

"हम कष्ट सहन कर सकते हैं परन्तु हम कानून नहीं तोड़ सकते। मनुष्य धैर्यके साथ बुराईको सहन करनेकी अपेक्षा हिंसाके द्वारा उसे रोकनेमें अधिक हानि उठाते हैं और एक-दूसरेको कहीं अधिक चोट पहुँचाते हैं। फिर क्या आपने कभी विचार किया है कि केवल कष्ट, प्रताड़न, दुःख और मृत्युका कष्ट भोगकर ही आप मनुष्योंको अपने मतमें ला सकते हैं। क्या आप समझते हैं कि ईसाइयतने संसारमें अपना मार्ग उपदेशके द्वारा बनाया है? छिः! ऐसी कोई बात नहीं है। उपदेशसे कभी किसीका मत-परिवर्तन नहीं हुआ। मनुष्योंका मत जिससे परिवर्तित होता है वह उपदेश नहीं बल्कि आत्म-बलिदान है। जब लोग दूसरे लोगोंको, जो स्वयं उनकी ही भाँति निर्बल, भावुक, आराम-पसन्द हों, प्रसन्नतापूर्वक अपने मालको लूट सहन करते, दण्ड भोगनेमें आनन्द मनाते और अपने विश्वासके लिए सहर्ष मृत्युका आलिंगन करते देखते हैं तभी उन्हें विश्वास होता