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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है कि इसमें कुछ बात अवश्य है। कोई मनुष्य किसी बातकी सचाईमें तबतक विश्वास नहीं करता जबतक वह यह नहीं देख लेता कि उसके बारेमें कोई मरनेके लिए तैयार है। जेल, दाँव, फाँसी ये महान तर्क हैं जो मनुष्योंमें विश्वास पैदा करते हैं। और यदि आप इन दण्डोंके सामने सिर झुकानेसे इनकार करते हैं तो आपके सामने लोगोंको अपने मतमें लानेका जो एक-मात्र अवसर है, उसे नष्ट कर देते हैं।"

काउंट टॉलस्टॉयने स्पष्ट रूपसे कहा कि समस्त दण्ड अपने प्रकृत रूपमें उत्पीड़न ही हैं।

"यदि आप कहते हैं कि कोई आदमी अपने पड़ोसियोंके लिए एक परेशानी और झंझट है तो याद रखिए कि सर्वश्रेष्ठ मनुष्य ऐसे ही समझे गये हैं। क्या आप समझते हैं कि ईसा अपने भाई द्वारा एक बड़ी झंझट और परेशानी नहीं समझे गये थे? जबतक उन्होंने हलचल नहीं शुरू की, गृहस्थी शान्तिपूर्वक चलती रही थी।"

टॉलस्टॉय और थोरो सविनय अवज्ञाके मामलेमें सहमत प्रतीत होते हैं। व्यक्तिगत आत्मापर सदसद्-विवेकके दावेके बारेमें उनकी बात हमारी समझ के परे मालूम होती है। फिर भी उसमें से किसी एकके बारेमें भी मानवीय पूर्णताका दावा करना मेरे लिए दूरकी बात है। वे केवल बुद्धिके क्षेत्रमें बढ़े हुए विचारोंके मनुष्य हैं। उनकी बौद्धिक महत्ता उनके विचारोंके कारण हमारी श्रद्धाकी दावेदार है। ईसाइयतके विषयमें टॉलस्टॉयके विचार निराले हैं। उनमें बहुत-सी ऐसी बातें हैं जिन्हें हम उनकी ही रचनाओंसे बेमेल समझकर छोड़ सकते हैं। तो भी हमें स्वीकार करना चाहिए कि उनकी कही हुई अधिकांश बातोंमें बुद्धिमानी है। ईसाइयत उनके लिए विस्तृत मानव-धर्म है। ईसा सर्वोच्च बुद्धिवादी हैं। वे प्रत्येक वस्तुको आन्तरिक प्रकाश-–"प्रकाश जो आपमें है"-– अर्थात् विवेकके प्रकाशके नीचे रखते हैं। यही निष्कर्ष है जिसपर समस्त दार्शनिक और नीतिज्ञ स्थापित सत्ताके विरुद्ध अपने अनाक्रामक प्रतिरोध --आत्मसमर्पणसे विवेकके द्वन्द्वको आधारित करते हैं।

मेरा खयाल है कि मैंने यह स्पष्ट कर दिया है कि उन लोगोंके लिए, जो पशुबलके अधीन हैं, सत्याग्रह मृत्यु पर्यन्तका एक सम्मानपूर्ण अस्त्र है। इसके प्रयोगके पीछे यदि देवी नहीं तो उच्च भावना अवश्य है। इसका शास्त्र सरकारों और मानव-समुदायोंके लिये स्पष्ट और अचूक है। मैंने इस बारेमें सुकरात और प्लेटो, ईसा और आधुनिक नैतिकता का उल्लेख किया है। पुरातनकालने और पीछे जानेपर हम कन्फ्यूशियसको अपने नीति-शास्त्रमें सक्रिय अवज्ञा और निष्क्रिय प्रतिरोधके बीच सरल और घरेलू शब्दोंमें दैवी रेखा खींचते पाते हैं:

"पहले मनुष्योंके साथ मेरा तरीका यह था कि मैं उनके शब्दोंको सुनता था और उनके आचरणके लिए उन्हें श्रेय देता था। अब मेरा तरीका यह है कि उनके शब्दोंको सुनता हूँ और उनके आचरणकी ओर देखता हूँ...यह साहसका अभाव है कि हम समझ तो लें कि ठीक क्या है और उसको करें नहीं।"

मैं मैंकालेके शब्दोंमें, जो इतने धाराप्रवाह और अर्थगर्भित हैं, इसे समाप्त करता हूँ:

"प्रभुत्व हमसे छिन जा सकता है। अदृष्ट घटनाएँ हमारी अति गहन नीतिकी योजनाओंको अव्यवस्थित कर सकती हैं। विजय हमारे अस्त्र-शस्त्रोंसे नहीं भी मिल सकती है। परन्तु ऐसी विजयें भी होती है जिनमें कोई हार होती ही नहीं। एक ऐसा साम्राज्य भी होता है जो विनाशके समस्त प्राकृतिक कारणोंसे विमुक्त होता है। वे विजयें बर्बरताके ऊपर विवेककी शान्तिमय विजयें हैं। वह साम्राज्य हमारी कलाओं और हमारी नैतिकताओं, हमारे साहित्य और हमारे नियमोंका अनश्वर साम्राज्य है!...परन्तु ऐसा न हो कि हम उसके चरित और उसके हितोंको न पहचानकर सत्यके संग्रामकी भ्रान्तिके अस्त्रोंसे लड़ें और उस धर्मको उत्पीड़नके द्वारा स्थापित करने की चेष्टा करें जिसने मानव-जातिको पहले-पहल विश्वव्यापी उदारताका महान पाठ पढ़ाया था।"

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १८-४-१९०८