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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

की है। उन्होंने बार-बार कहा है: "यह कानून भारतसे आनेवालोंके लिए अन्तिम रूपसे सभी द्वार बिलकुल बन्द कर देता है।" एशियाई नेताओंने उनकी व्याख्याको कभी स्वीकार नहीं किया, पर उन्होंने सदा यही कहा है कि वे इसी अत्यन्त कठोर अधिनियमको उसकी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई व्याख्याके साथ स्वीकार करनेके लिए तैयार हैं। और उनका दृष्टिकोण बदला नहीं है। लेकिन लगता है कि अब जनरल स्मटसको ही अपनी व्याख्याके सही होनेपर पूरा भरोसा नहीं रह गया है और इसीलिए वह चाहते हैं कि एशियाई नेता इस प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियममें उनकी व्याख्याके अनुसार संशोधन स्वीकार कर लें। इसे स्वीकार करनेका अर्थ यह होगा कि वे उपनिवेशमें अपने सर्वाधिक सुसंस्कृत बन्धुओंका प्रवेश वर्जित करानेपर सहमत हो जायेंगे, भले ही उनके ये बन्धु अधिनियम द्वारा लागू की जानेवाली कठिनसे-कठिन परीक्षामें उत्तीर्ण भी हो जायें। इसपर एशियाइयोंका यह उत्तर है: "आप हमसे इस नये संशोधनको स्वीकार करनेकी आशा नहीं कर सकते। हमने अधिनियमका वह अर्थ नहीं समझा है, जिसे आप पेश कर रहे हैं। लेकिन हमारी समझ गलत भी हो सकती है। इसलिए हम सर्वोच्च न्यायालयका हर निर्णय स्वीकार करनेके लिए तैयार हैं, फिर चाहे हमें उससे हानि हो अथवा लाभ। हमें कृपया इस मामलेका निर्णय स्वयं करनेपर विवश मत कीजिए।" परन्तु जनरल स्मट्स इसका जो उत्तर देते हैं, उसका अर्थ यह निकलता है कि "आप मेरी व्याख्या स्वीकार करें; अन्यथा कानून रद नहीं किया जायेगा।"

इस सारे मामलेमें उल्लेखनीय बात यह हुई कि अभी कुछ सप्ताह पूर्व स्वयं उपनिवेश-सचिवने श्री गांधी यह कहनेपर कि अमुक शिक्षित भारतीय अन्य शर्तोंके साथ प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमकी शर्तें भी पूरी करता है, उसे पूर्ण पंजीयनकी अनुमति दी थी।

(२) जिन मुद्दोंकी बात की जा रही है उनमें दूसरे और तीसरे मुद्दे भी बिलकुल नये हैं। इनमें नेताओंसे उन सारे एशियाइयोंको, जिनके पास १८८५ के कानून ३ के अंतर्गत डच कालके पंजीयन है और जिनके लिए वे ३ पौंडसे २५ पौंड तक का शुल्क अदा कर चुके हैं, निषिद्ध प्रवासी माननेको कहा गया है; भले ही ये एशियाई देशमें हों या देशके बाहर। सभी एशियाई जो युद्धके पहले ट्रान्सवालमें रहते थे और जो अपना पूर्व-निवास किसी भी अदालतमें सिद्ध कर सकते हैं; किन्तु जो लोग समझौते द्वारा दी गई तीन महीनोंकी अवधिमें उपनिवेशमें लौटकर नहीं आये और जिनके पास "शान्ति-सुरक्षा अनुमतिपत्र" नहीं हैं, निषिद्ध प्रवासी माने जायें। समझौतेका यह स्पष्ट उल्लंघन है। इसका यह अर्थ हुआ कि जिन एशियाइयोंने दीर्घ निवास और डच कानूनके अनुसार महँगे पंजीयनके द्वारा यहाँ रहनेका अपना अधिकार दृढ़ किया, उनके अधिकारोंको अमान्य कर दिया जायेगा और वे उपनिवेशके बाहर निकाल दिये जायेंगे; और जो एशियाई अपने घरोंसे इतने दूर थे कि तीन महीनोंकी निर्धारित अवधिमें उनका लौटना सम्भव नहीं था, अथवा जिन्हें उस बीच कोई समझौता हुआ है इसकी खबर ही नहीं हुई, उन्हें 'शान्ति-सुरक्षा अनुमतिपत्रों' के न होनेके आधारपर उपनिवेशमें प्रवेश नहीं करने दिया जायेगा। कदाचित् न व्यवस्थाओंका प्रभाव ६०० व्यक्तियोंपर पड़ेगा।

(३) किन्तु अन्तिम नई माँग सबसे बुरी है; क्योंकि उसका सम्बन्ध सिद्धान्तसे हैं। जनरल स्मट्सका आग्रह है कि वे सभी एशियाई जिन्होंने स्वेच्छापूर्वक पंजीयनके लिए प्रार्थनापत्र दिये हैं किन्तु जिन्हें श्री चैमनेने अमान्य कर दिया है या जिन्हें वे भविष्यमें अमान्य करेंगे, निषिद्ध प्रवासी माने जायें और उन्हें श्री चैमनेके निर्णयके विरुद्ध अपीलका कोई अधिकार न रहे। यह सरासर अन्याय है। निषिद्ध किये जानेवाले एशियाईको यह अधिकार भी नहीं दिया गया कि वह अपने मामलेको बाकायदा अदालतमें ले जा सके! सम्भव है उसे अपनी प्रार्थना ठुकराये जानेका कारण भी मालूम न हो पाये! श्री चैमने भी गलतियोंसे परे नहीं हैं; उनसे भी हमारी ही तरह भयानक भूलें हो सकती हैं। किन्तु यदि पंजीयन अधिकारी सन्तुष्ट न हो, तो बेचारे एशियाईको घरबार छोड़कर जाना पड़ेगा; यहाँतक कि उसे अपीलफा हक भी नहीं होगा। यह सामान्य मनुष्यता भी नहीं है। और तब कोई आश्चर्य नहीं कि एशियाई इतनी बड़ी कीमतपर कानून रद करनेके वचनकी पूर्ति नहीं चाहते।

यहाँ कौनसा सिद्धान्त खतरेमें पड़ रहा है, उसे भलीभाँति समझ लेना अच्छा होगा। इन "शर्तों" में निरंकुशताकी भावना प्रबल है। एशियाई केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्याख्या और संरक्षण चाहते हैं। उन्हें