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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह सवाल अकेले ट्रान्सवालका नहीं था; अन्तर्राष्ट्रीय सवाल था। दूसरा उपाय यह था कि इन भारतीयोंको जेल में ठूँस दिया जाये। मैंने हरएक नेताको और सैकड़ों दूसरे लोगोंको जेल भेजा लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। लोगोंको जेल भेजनेकी नीति धमकीकी तरह एक अच्छी नीति थी,...लेकिन मैं चुनौती देता हूँ कि कोई भी सरकार १०,००० लोगोंको गरदनियाँ देकर जेलमें डाल कर देखे...।

[ इतने लोगोंको जेलमें डालना ] ऐसा उपाय है जो न केवल स्थूल रूपमें बल्कि नैतिक दृष्टिसे भी अशक्य है...क्योंकि उससे ट्रान्सवाल्की गोरी प्रजाके सम्मान और उसकी प्रतिष्ठाको धक्का लगेगा।...१८८५ का कानून [ भी ] निःसत्व हो गया था और परिणाम यह था कि १८८५ से १८९९ तक एशियाइयोंने न तो परवानोंका शुल्क दिया और न कानूनोंकी परवाह की...। मैं तो येनकेन उक्त कानूनका उद्देश्य सिद्ध करना चाहता था। [ इसलिए ] मैंने सुलहका प्रस्ताव रखा। मैंने उनसे कहा कि कानून तो निरर्थक हो गया लेकिन वे स्वेच्छया पंजीयन करा लें, सरकार उसे स्वीकार कर लेगी और संसदके समक्ष रख देगी। ...भारतीय नेताओंने...यह सलाह स्वीकार कर ली...स्वेच्छया पंजीयन ही एकमात्र सम्भव उपाय था। इसलिए मैंने कहा कि "ठीक है", क्योंकि उसमें सरकारके लिए लज्जाकी कोई बात नहीं थी...मैंने शुरूसे ही यह स्थिति अपनाई थी कि ट्रान्सवालकी भारतीय प्रजाके लिए १० अँगुलियोंकी छापके सिवा पहचानका कोई भी दूसरा जरिया नाकाफी है।...भारतीय कहते थे कि इस चीजको वे लोग कभी स्वीकार नहीं करेंगे।...अब उन्होंने उसे मान लिया है,...उनमें ज्यादा अक्ल आ गई है और वे समझ गये हैं कि उसमें कोई दोष नहीं है और उससे उनकी प्रतिष्ठाको बट्टा नहीं लगता।...भारतीयोंका दूसरा आग्रह यह था कि उक्त कानून अपमानजनक और लज्जाकर है और जबतक वह रद नहीं किया जाता वे कदापि पंजीयन न करायेंगे। मैंने उनसे कहा कि जबतक देशमें ऐसा एक भी एशियाई है जिसने पंजीयन नहीं कराया है तबतक कानून रद नहीं किया जायेगा। और समझदार आदमियोंकी तरह [ अब ] भारतीय समाजके नेताओंने कानून रद करनेफी माँग छोड़ दी है। रिपब्लिकन सरकार जो काम कभी नहीं कर सकी थी वहीं दोनों पक्षोंके द्वारा किंचित आदान-प्रदानकी नीतिका पालन करनेपर अब सिद्ध हो गया, और मेरा खयाल है कि जो समझौता हुआ है उससे दोनों पक्षोंके सम्मानकी रक्षा हुई है। हमने दो कानून बनाये हैं...एक उन सब भारतीयोंका पंजीयन करनेके लिए जो यहाँ कानूनके अनुसार रहनेके अधिकारी थे; दूसरा बाकी सबके लिए इस देशका दरवाजा अन्तिम रूपसे बन्द कर देनेके लिए।

अब भविष्यमें ऐसा कोई भी एशियाई इस देशमें नहीं आ सकता जो युद्धके पहले ट्रान्सवालका निवासी न रह चुका हो। ब्रिटिश सरकारने इसे अपनी सम्मति दे दी है।...यह ब्रिटिश साम्राज्यमें किसी भी समय बनाये गये कानूनोंमें सबसे सख्त एशियाई कानून है।...हम जानते हैं कि हम एक ऐसे साम्राज्यके अंग हैं जिसमें काले लोगोंकी बहुसंख्या है और यह एक ऐसा तथ्य है जिसे हमें कभी नहीं भूलना चाहिए।...

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन,१५-२-१९०८