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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बहादुरोंसे दो शब्द

मैं सुनता हूँ कि पीटर्सबर्गमें जो थोड़े-से बहुत ही बहादुर मेमन हैं और जो बड़ा जोर दिखाते आये हैं, वे तथा वहाँके सूरती और हिन्दू भी ढीले पड़ गये हैं; उनको कलमुँहोंकी छूत लग गई है, और वे थरथर काँप रहे हैं। यदि ऐसा हो तो उनके प्रति मेरी पूर्ण सहानुभूति है। जहाँ कायरोंका जोरदार संग-साथ हो वहाँपर हिम्मतवालोंकी भी हिम्मत छूट जाये, यह सम्भव है। फिर भी उनसे और विशेषतः मेमन लोगोंसे मेरा खास निवेदन है कि किनारेपर आये हुए जहाजको न डुबाएँ। सबके-सब मेमन खिसक जायेंगे तो काठियावाड़---पोरबंदर, भाणवड़ और राणावावकी बदनामी होगी। हम कायरोंको जाने दें। उन्हें दुबारा जोश दिलायेंगे; किन्तु यदि एक भी मेमन सच्चा न बचे तो सारी कौम डूबेगी। एक जिन्दा-दिल रहेगा, वह औरोंको तारेगा। इसलिए मैं श्री अब्दुल लतीफ और उनसे, जो उनके साथ सचमुच टिक गये हैं, विनती करता हूँ। सूरती लोगों तथा हिन्दुओंसे मैं यही कहूँगा कि आप लोग खुदाका--ईश्वरका--नाम लें और किसी भी हालतमें हरगिज डूबें नहीं। थोड़ा-सा साहस बनाये रखेंगे तो लड़ाई बिलकुल आसान और सरल है। पीटर्सबर्गके बहुतसे भारतीय खिसक गये इसलिए आपको हताश नहीं होना चाहिए। सारे ट्रान्सवालके भारतीय जोशमें हैं। और अन्तमें जो पीटर्सबर्गमें रह जायेंगे उन्हें सच्ची बहादुरी शोभा देगी। क्योंकि वहाँ अधिक खतरा दिखाई देता है।

डेलागोआ-बेमें धोखेबाज

डेलागोआ-बेके दो धोखेबाज भारतीय लुटेरोंके बारेमें पंजीयकको पत्र लिखा गया है। पंजीयकने उनके नाम माँगे हैं। परन्तु वे नहीं दिये जा सकते। मेरे पास यह खबर आई है कि उनमें से एक गिरफ्तार कर लिया गया है और दूसरा नौ-दो ग्यारह हो गया है। उनके साथ एक गोरा था, जो पंजीयक बना हुआ था। भारतीयोंके ऐसे शत्रुओंका सिलसिला कब खत्म होगा? ऐसा जान पड़ता है कि कुछ लोगोंको पैसा कमानेके लिए और कोई रास्ता सूझ ही नहीं पड़ता। यदि ऐसा ही है तो फिर खुद हमें इस प्रकारके दुर्जनोंसे दूर रहना है। मैं आशा करता हूँ कि डेलागोआ-बे तथा अन्य सभी भागोंमें भारतीय सब लोगोंको साव- धान कर देंगे। इस बड़ी लड़ाईमें झूठका सहारा नहीं चाहिए। हम लोगोंको अन्तमें जाकर अच्छा बनना है। रामसुन्दरकी तरह सिर्फ ढोंग नहीं करना है।

गोरोंकी सहानुभूति

लड़ाईने उचित रूप धारण किया है, इसलिए गोरे बड़ी सहानुभूति दिखा रहे हैं। जब अदालतके सामनेवाले मैदान और श्री गांधीके दफ्तरके सामने सभाएँ[१] हुई थीं तब दोनों अवसरोंपर लगभग सौ गोरे उपस्थित थे। उन सबकी सहानुभूति भारतीयोंकी ओर दिखाई पड़ रही थी। जो श्री हॉस्केन[२] हमें गुलामीका पट्टा लेनेकी सलाह दे रहे थे, वे महोदय अब हमें प्रोत्साहन देने लगे हैं। सत्य और साहसका ऐसा ही फल होता है।

  1. दिसम्बर २८, १९०७ को हुई थीं, देखिए खण्ड ७ पृष्ठ ४६४।
  2. विलियम हॉस्केन; ट्रान्सवाल्के एक प्रसिद्ध धनी और विधान सभाके सदस्य। सत्याग्रह आन्दोलनके साथ सहानुभूति रखनेवाले यूरोपीयोंकी समितिके अध्यक्ष थे। इन्होंने १९०८ के आन्दोलनमें सत्याग्रहियों तथा सरकार के बीच मध्यस्थता की थी और इसके तुरन्त बाद ही इन्हे हब्शियोंका पक्षपाती होनेके कारण राजनीतिक जीवनका त्याग करना पड़ा था। देखिए दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास, अध्याय १३ और १६ और खण्ड ७, पृष्ठ १५१।