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जोहानिसबर्गका मुकदमा

उस दिन प्रतिवादीको ४८ घंटे के अन्दर उपनिवेशसे निकल जानेकी आज्ञा सुनाई गई थी।[१] गवाहने स्वयं लिखित आज्ञा अभियुक्तको दे दी थी।

मजिस्ट्रेट के यह पूछनेपर कि उन्हें कोई प्रश्न पूछने हैं, श्री गांधीने कहा: 'जी, नहीं।'

'बी' विभागके अधीक्षक वरनॉनने कहा कि उस रोज दिनके दो बजे उन्होंने अभियुक्तको आज्ञा न माननेके अपराधमें गिरफ्तार किया। हुक्म जारी होनेके बादसे आजतक उन्होंने अभियुक्तको कई बार देखा है।

श्री गांधीने इसके बाद भी कोई प्रश्न नहीं पूछा।

श्री शूरमनने सूचित किया कि मामला यही है।

श्री गांधीने एक छोटा-सा वक्तव्य देनेकी इजाजत माँगी, जिसके मिलनेपर उन्होंने कहा कि उनका खयाल है कि उनके मुकदमे और उनके बादमें आनेवाले लोगोंके मामलोंमें फर्क किया जाना चाहिए। अभी-अभी प्रिटोरियासे उन्हें संदेश मिला है कि उनके साथी देशभक्तों के मामलोंकी जाँच वहाँ हो चुकी है और उन्हें वहाँ तीन-तीन महीनेकी कठोर परिश्रमकी सजा दी गई है। इसके अतिरिक्त भारी-भारी जुर्माने भी हुए हैं, तथा जुर्माने न चुकानेपर तीन-तीन महीनेका सपरिश्रम कारावास और दिया गया है। अगर इन आदमियोंने कोई गुनाह किया है तो उनसे बड़ा गुनाह उन्होंने [ श्री गांधीने ] किया है। इसलिए उन्होंने मजिस्ट्रेटसे उन्हें कड़ीसे-कड़ी सजा देनेकी प्रार्थना की।

श्री जॉर्डन: आप कानूनमें विहित भारीसे-भारी सजाकी माँग कर रहे हैं?

श्री गांधी: जी, हाँ।

श्री जॉर्डन: यह सजा छः महीने सपरिश्रम कारावास और पाँच सौ पौंडका जुर्माना है। परन्तु मुझे कहना होगा कि इतनी भारी सजा देनेकी आपकी माँगको स्वीकार करनेकी इच्छा मुझे नहीं हो रही है। आपने जो गुनाह किया है उसे देखते हुए यह बहुत अधिक जान पड़ती है। आपने तारीख २८ दिसम्बरके आदेशकी अवज्ञा की। यह अपराध व्यवहारतः अदालतकी तौहीन है। और यह एक प्रकारसे राजनीतिक अपराध है। अगर इसमें कानूनकी अवज्ञाकी बात नहीं होती तो कानूनके अन्तर्गत जो सजा देनेका अधिकार मुझे है उसमें से हलकीसे हलकी सजा देना मैं अपना कर्त्तव्य मानता। इस स्थितिमें मेरे खयालसे आपको दो महीनेके सादे कारावासकी सजा देना इस मामलेके लिए काफी होगा

इसके बाद श्री गांधीको हिरासतमें ले लिया गया।[२]

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १८-१-१९०८
  1. देखिए खण्ड ७, पृष्ठ ४५८-६०।
  2. गांधीजीने कुछ बरसों बाद इसके बारेमें लिखते हुए अपने "कुछ परेशान" हो उठनेकी बात कही है। वे हिरासत में अकेले थे; इस कारण वे " गम्भीर विचार" में पड़ गये, "घर, अदालतें, जहाँ कि मैं वकालत करता था, सार्वजनिक सभाएँ--सब सपने हो गये और अब मैं एक कैदी था।" यदि लोग जेलमें काफी संख्यामें नहीं आये तो "दो महीने युग हो जायेंगे।" फिन्तु जल्दी ही उनके मनमें इन विचारोंपर "लज्जा" आई। और उन्हें यह याद हो आया कि उन्होंने लोगोंसे किस प्रकार जेलोंको "सम्राटका अतिथिगृह" माननेको कहा था। इस दूसरे विचार-प्रवाहका उनके मनपर "स्वस्थ प्रभाव" पड़ा। देखिए दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास, अध्याय २०।