पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।



२८. भेंट: पत्र--प्रतिनिधियोंको[१]

[ जोहानिसबर्ग
फरवरी १, १९०८]

इस लड़ाईसे कमसे-कम एक बात असन्दिग्ध रूपसे प्रकट हो गई है कि ट्रान्सवालके भारतीय स्वाभिमानी हैं और मनुष्यों जैसा बरताव पानेके लायक हैं। उनके बारेमें अक्सर यह कहा जाता रहा है कि उनमें पारस्परिक हितके लिए मिलकर काम करनेकी शक्ति नहीं है। मेरा खयाल है कि मैं अपने देशवासियोंके बारेमें यह दावा उचित रूपसे कर सकता हूँ कि उन्होंने अप्रतिम स्वार्थत्यागका परिचय दिया है। सैकड़ों गरीब फेरीवालोंने मजिस्ट्रेट द्वारा किये गये छोटे-छोटे जुर्माने देनेके बदले केवल सिद्धान्तके लिए जेलकी मुसीबतें झेलना पसन्द किया है। अपने वकालतके अनुभवमें मैंने ऐसे मुवक्किल अधिक नहीं देखे जिन्होंने जुर्मानेका विकल्प होनेपर जेल जाना पसन्द किया हो। यदि जुर्माना देनेपर जेलको टालना सम्भव होता था तो वे उसे टालनेके लिए भारीसे-भारी जुर्माने देनेके लिए तैयार रहते थे। मुझे स्वीकार करना चाहिए कि उपनिवेशके गरीबसे-गरीब भारतीयोंने जो एकता दिखाई है उसने तो एक हदतक मेरी भी आँखें खोल दी हैं। और मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि इससे उपनिवेशियोंकी आँखें भी खुल गई होंगी। इसलिए, मेरी समझमें, अभी जो समझौता हुआ है वह अगर भारतीयोंके लिए भी सम्मानप्रद हो---और सरकारके लिए तो है ही- --तो कहना होगा कि भारतीयोंने उसके लिए लगभग अपना खून बहाया है। सैकड़ों भारतीयोंने इसके लिए जो त्याग किया है उसे ठीक-ठीक बताना सम्भव ही नहीं है। और मैं इस वर्गमें उन भारतीयोंको भी गिनता हूँ, जो संघर्षकी तकलीफें उठाने में अपने-आपको असमर्थ मानकर उपनिवेशको ही छोड़कर चले गये हैं। उपनिवेशमें जिनके बहुत बड़े-बड़े भण्डार थे, ऐसे व्यापारी भी आनेवाली हर मुसीबतके प्रति उदासीन हो गये; किन्तु उन्होंने उस कानूनके आगे सिर झुकाना स्वीकार नहीं किया जिसे वे जलील करनेवाला मानते हैं। मेरा तो खयाल है कि अपने-आपको विश्वासके योग्य सिद्ध करनेके लिए भारतीयोंने जो कुछ किया वह करना जरूरी था। और उनके प्रार्थनापत्रको स्वीकार करके सरकारने तीन महीनेकी रियायत देनेके सिवा कुछ अधिक नहीं किया है। अब हम कसौटीपर कसे जा रहे हैं। मेरी समझमें तो असली काम अब शुरू होता है। अब हमें अपनी बाजी सीधे और सम्मानप्रद ढंगसे खेलनी है।

हमें अब सरकार और उपनिवेशियोंको बता देना है कि एक समूहके रूपमें भारतीय कौमका धोखा-धड़ी से उपनिवेशमें घुसने से कोई ताल्लुक नहीं है और यद्यपि कानूनकी दृष्टिसे हम जरा भी बँधे हुए नहीं हैं, तथापि हम स्वीकार करते हैं कि ऐसे प्रत्येक एशियाईकी, जिसे

  1. यह इंडियन ओपिनियन में "श्री गांधीसे भेंट: सीधा और सम्मानप्रद रुख" शीर्षकसे प्रकाशित हुआ था। भेंटकी तिथिके विषय में देखिए पादटिप्पणी पृष्ठ ५४।