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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इतिहासमें ऐसे उदाहरण बहुत नहीं मिलेंगे। सरकारने भारतीय समाजपर बड़ा विश्वास किया है और वैसी ही बड़ी जिम्मेवारी उसपर डाली है। भारतीय समाजकी जो माँग थी वह स्वीकार कर ली गई है। माँग यह थी कि नया कानून उसपर लागू न हो। "कानून लागू न हो", इस वाक्यका अर्थ समझ लेना उचित होगा। १९०६ के सितम्बर मासमें यह शपथ ली गई थी कि 'कानूनके आगे नहीं झुकेंगे।' उस समय सिर्फ कानून था; उसके अन्तर्गत जुलाई [१९०७] मासमें बनाई गई धाराएँ नहीं थीं।[१] हम इस कानूनके आगे नहीं झुकेंगे, यह भारतीय समाजका महान प्रण था। अब सरकारने वचन दिया है कि अमुक शर्त पूरी होनेपर वह कानून भारतीयोंपर लागू नहीं किया जायेगा। शर्त यह है कि भारतीय समाज स्वेच्छासे उस कानूनके उद्देश्यको कानूनसे बाहर पूरा करे। यानी शर्त स्वेच्छया पंजीयन करानेकी है। और भारतीय समाज समय-समयपर इस प्रकारके पंजीयनके लिए कहता आया है। यह स्वेच्छया पंजीयन अब सरकारने मान लिया है और सरकारने कहा है कि जो लोग स्वेच्छया पंजीयन करायेंगे उनपर नया कानून लागू नहीं होगा। अर्थात् या तो वह कानून केवल कलमुँहोंके लिए ही रहेगा अथवा सबके लिए दूसरा कानून बनेगा।

जब लड़ाई शुरू हुई तब कई कमजोर-दिल भारतीय कहा करते थे कि "सरकारी कानून कभी टूट नहीं सकता।" "यह तो दीवारपर सिर मारने जैसा है।" "सरकार कानूनमें थोड़ा-सा परिवर्तन करे तो बस है।" "सरकारका मुकाबला करना मूर्खता है। ऐसा कहनेवालेको पैसे या दूसरे लालचके मारे खुदाका---ईश्वरका बहुत कम भान था। अब उसी कानूनके टूटनेका समय आ गया है। अभी वह टूटा नहीं है। परन्तु 'टूटेगा', यह कहकर जेलमें भेजे हुए भारतीयोंको छोड़ा गया है। सबके-सब अखबार आश्चर्यमें पड़ गये हैं। गोरे अपने दाँतों तले अँगुली दबा रहे हैं और सोच रहे हैं कि "यह सब कैसे हो गया?"

इस जीतको हम सत्यकी जय समझते हैं। हम यह नहीं कहना चाहते कि सभी भारतीयोंने सत्यके ही द्वारा लड़ाई लड़ी। यह भी नहीं कहा जा सकता कि किसीने इसमें अपना स्वार्थ नहीं देखा। फिर भी हम यह निश्चित रूपसे कह सकते हैं कि यह लड़ाई सत्यके लिए थी और नेताओंमें से बहुतोंने केवल सत्यका सहारा लेकर संघर्ष किया है। इस कारण यह अद्भुत परिणाम निकला। सत्य ही ईश्वर है, अथवा खुदा ही सच है। इस प्रकारके वचन प्रत्येक धर्ममें मिल जाते हैं। इस सत्यका, इस खुदाका, जो मनुष्य सेवन करता है वह कभी हारता नहीं, यह खुदाई कानून है। कभी-कभी सत्य व्रत पालनेवाला व्यक्ति हारता हुआ प्रतीत होता है, किन्तु वह आभास-मात्र है। वास्तवमें वह हारता नहीं है। अभीष्ट परिणाम न निकलनेपर हम "हार हुई", ऐसा मानते हैं। परन्तु दीख पड़नेवाली हार कई बार जीत ही हुआ करती है। ऐसे हजारों उदाहरण मिलते हैं। सामान्य श्रेणीका सत्य धारण करके हम कोई परिणाम प्राप्त करनेके लिए प्रयत्न करें, और वह परिणाम प्राप्त न हो तो दोष सत्यका नहीं है, हमारा है। [ अभीष्ट ] परिणाम अच्छा न हो तो हमारे चाहते हुए भी ईश्वर हमें वह परिणाम नहीं देता। इसीलिए हमने ऊपर यह श्लोक दिया है कि सुख या दुःख, लाभ या हानि सब बातोंमें सम रहकर अर्थात् एक जैसे रहकर हमें लड़ाई लड़नी है। ऐसा करते हुए हम पाप नहीं करते। यह कुंजी पुरानी है। और यह कुंजी हाथमें रखें तो हम बड़ी-बड़ी अड़चनोंके ताले खोल सकते हैं। जो मनुष्य इस प्रकार

  1. देखिए खण्ड ७, पृष्ठ ८२-८४।