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सत्यकी जय

लड़ेगा, वह केवल खुदाके नामपर ही लड़ेगा, वह हार-जीत नहीं गिनता। उसका प्रण तो एक ही है। और उसका महान काम इतना ही है कि खुदाके नामपर सत्यका सेवन करता हुआ अपना कर्तव्य करे। उसका फल देनेवाला मालिक बड़ा है।

जिस प्रकार सत्यकी जय हुई है उसी प्रकार सत्याग्रहकी जीत हुई है। सब भारतीयोंको अब ज्ञात हो जाना चाहिए कि सत्याग्रह अक्सीर इलाज है। वह भीषण रोगोंको दूर कर सकता है। इस जीतका यह फल अवश्य होना चाहिए कि हम सत्याग्रहका पूरा-पूरा उपयोग करें। हाँ, उसका समय होना चाहिए, और लोगोंमें ऐक्य होना चाहिए। कुछ कष्टोंपर सत्याग्रह लागू नहीं होता, यह भी समझ लेना है। जहाँ हमारे लिए कोई-न-कोई कदम उठाना जरूरी हो जाये वहीं सत्याग्रह काममें आ सकता है। जैसे सरकार जमीन न दे, इसमें सत्याग्रह काम नहीं आ सकता। लेकिन सरकार अगर हमें अमुक जगहपर चलनेकी मनाही करे, हमें बस्ती-बाड़ोंमें चले जानेको कहे, हमारा व्यापार बन्द करे, तो इन सबपर सत्याग्रह किया जा सकता है। अर्थात् जब हमारे हाथों कोई ऐसा काम करवानेकी नीयत हो, जो हमारे धर्म और हमारे पौरुषके लिए अशोभनीय हो, तो हम सत्याग्रह-रूपी अमूल्य औषधि काममें ला सकते हैं। वह औषधि इस शर्त पर लागू होगी कि हम सब एक होकर हानि उठाने के लिए तैयार रहें।

कोई कहेगा कि यह सब तो लम्बी-चौड़ी बातें हैं। जीत कैसी? समझौता कौन-सा? दस अँगुलियाँ लगाने की बात तो चल ही रही है। इस प्रकारकी बहस करनेवालेको हम अनजान समझते हैं; क्योंकि यह लड़ाई दस अँगुलियोंकी नहीं है। कानूनके टूटनेके बाद दस अँगुलियाँ लगानी पड़ें, तो कोई हर्ज नहीं। कलंक दस अँगुलियाँ देनेमें नहीं है। बुराई नये कानूनके मातहत कुछ भी देनेमें है। विनयके विचारसे या अपनी इच्छा से अपने मित्रके जूते साफ करनेमें हलकापन नहीं है। लेकिन डरकर, हुक्म मानकर जूते साफ करना तो टहल करनेके समान होगा, और इसमें तौहीन समझी जायेगी। इसलिए कोई बात अच्छी है या बुरी, यह उसके सन्दर्भों पर आधारित होता है। हम जानते हैं कि कई भारतीय इसे दस अँगुलियोंकी ही लड़ाई समझनेकी जबर्दस्त भूल करते हैं। पर इन भारतीयोंको याद रखना है कि कानूनके बाहर दस अँगुलियाँ लगानेमें कुछ भी तौहीन नहीं है। शपथ-भंग तो है ही नहीं। यह लिखते समय इस बातका निश्चय नहीं है कि दस अँगुलियाँ लगानी ही पड़ेंगी। अँगुलियोंकी छाप न देनी पड़े इसकी सारी कोशिशें की जा रही हैं। परन्तु हमारा कर्तव्य है कि लोगोंको स्पष्ट रूपसे समझा दें। अँगुलियाँ लगानी पड़े या नहीं, इसमें कोई हर्ज नहीं है। लड़ाई किस बातकी थी, उसको ठीक-ठीक समझ लेनेकी आवश्यकता है।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ८-२-१९०८