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३५. खूनी कानूनको स्वीकार करनेवालोंसे

'ब्लैकलेग' [धोखेबाजों] को हमने अबतक कलमुँहे आदिकी उपमा दी है। यह हमने सोच-समझकर और बिना गुस्सेके किया है। ऐसा करना हमारा कर्तव्य था। ये उपमाएँ द्वेषभावसे नहीं, बल्कि स्नेहके कारण, दुखित होकर दी थीं।

अब उन्हें कलमुँहा कहने का समय नहीं रहा। पहले उनका उदाहरण लोगोंके सामने लाना आवश्यक था। वह लड़ाई समाप्त हो चुकी है इसलिए उन्हें उपमाएँ देना अनुचित कहलायेगा। इस कारण अब हम ऐसा लिखना बन्द कर रहे हैं और जो मुक्त हो रहे हैं उन्हें हमारी सलाह है कि वे खूनी कानूनके आगे झुकनेवालोंपर जरा भी गुस्सा न करें और उनके साथ उत्पन्न भेदको मिटाकर उनके दोष भूल जायें। वे और अन्य भारतीय एक ही देशके हैं, एक ही रक्तके हैं, और भाई-भाई हैं। लाठीकी चोटसे जैसे पानी अलग नहीं हो सकता वैसे हम भी अलग नहीं हो सकते।

जिन्होंने खूनी कानून मान लिया है, उनको हमारी यह सलाह है कि वे जैसे बने वैसे, नम्रतापूर्वक, अपनी भूल कबूल करके समाजमें आ मिलें। की गई गलतीके लिए खुदासे माफी माँगें और फिर अवसर आनेपर शक्तिका परिचय दें।

संघका भवन (फेडरेशन हाल) बनानेकी बात फिर उठी है। [वह बने] तो वे इसमें बहुत बड़ी मदद कर सकते हैं। जब सारे समाजने बड़ी मुसीबत उठाई है, बहुत नुकसान सहन किया है, तब कानूनको स्वीकार कर लेनेवालोंने पैसे कमाये हैं। बहरहाल उन्होंने पैसेके लिए कानून कबूल किया है; इस कारण उनके लिए यह उचित होगा कि वे संघ के भवनके खर्चकी मदमें अच्छी-खासी और पर्याप्त रकम दें।

हमें अपनी यह सिफारिश उनसे जबर्दस्ती नहीं मनवानी है। सच्चा पछतावा इस तरह नहीं होता। यदि वे सच्ची भावनासे तथा कौम और देशकी भलाईके खातिर दें तभी वह शोभा देगा। हमें आशा है कि जिन मेमन लोगोंने वीरतापूर्वक समाजकी नाक रखी है, वे और ट्रान्सवालसे बाहरके मेमन, कानूनके आगे झुक जानेवाले मेमनोंसे अपना कर्तव्य पूरा करनेके लिए कहेंगे; और इसी प्रकार दूसरी कौमोंके जो भाई अनिवार्य पंजीयन करा चुके हैं, उन्हें उनकी कौमके लोग तथा दूसरे भारतीय समझायेंगे।

[ गुजराती से ]
इंडियन ओपिनियन, ८-२-१९०८