पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 9.pdf/१३

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प्रस्तावना

इस खण्डमें सितम्बर १९०८ से नवम्बर १९०९ तक की सामग्री दी गई है। इसका आरम्भ ट्रान्सवालके संत्याग्रह आन्दोलन में तेजी आने और अन्त लन्दनसे गांधीजीके जाने के साथ होता है । वे चार महीने तक ट्रान्सवालकी समस्याको वातचीत द्वारा सुलझानेका अनवरत प्रयत्न करते रहे । किन्तु वह निष्फल हुआ। राजनीतिक झगड़ोंको हल करनेके लिए संघर्षके साथ-साथ समझौतेका प्रयत्न करते रहना गांधीजीके सत्याग्रह-दर्शनका मूल तत्त्व था । सार्वजनिक गतिविधियोंके पीछे जीवनके प्रति सदैव ही उनका एक निश्चित नैतिक दृष्टिकोण रहता था । इस कालमें सत्याग्रहकी उनकी कल्पनाके साथ ही हम उनके उक्त नैतिक दृष्टिकोणको भी एक निश्चित स्वरूप ग्रहण करते हुए पाते हैं।

सन् १९०८ के अगस्त माह के उत्तरार्द्ध में पंजीयन प्रमाणपत्रोंकी जो सामूहिक होली जलाई गई, उसने सत्याग्रहके पुनरारम्भके लिए एक नाटकीय पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। सितम्बर २ के सरकारी 'गजट' में एशियाई पंजीयन संशोधन अधिनियम प्रकाशित हुआ । यह अधिनियम स्वेच्छया पंजीयनको तो वैध करता था, लेकिन १९०७ के उस क्षोभजनक अधिनियम २ को रद नहीं करता था जिसे गांधीजीके कथनानुसार स्मट्सने रद करनेका वादा किया था। अधिनियमको रद कराने और शिक्षित भारतीयोंके लिए उपनिवेशमें प्रवेशका अधिकार प्राप्त कराने के लिए गांधीजीको सत्याग्रहके अलावा कोई दूसरा चारा दिखाई नहीं पड़ा । तथापि सत्याग्रह आरम्भ करनेसे पहले उन्होंने दूसरे रास्तोंसे परिस्थिति सुधारनेके प्रयत्न किये । सितम्बर ९ को ब्रिटिश भारतीय संघने उपनिवेश मन्त्रीको एक निवेदनपत्र भेजा । पठानों, पंजाबियों और भूतपूर्व सैनिकों आदि भारतीय समाजके विभिन्न वर्गोंने भी प्रार्थनापत्र भेजे । लगभग इसी समय गांधीजी और उनके सहयोगी हॉस्केनसे मिले और समझौते के लिए जो कमसे कम शर्तें हो सकती थीं, उन्हें उनके सामने रखा। लेकिन ये सारे प्रयत्न विफल हुए ।

एक शिक्षित भारतीयके नाते प्रवेशके अपने अधिकारको दृढ़तापूर्वक जतानेके विचारसे डर्बनके एक प्रमुख पारसी सज्जन - सोराबजी- नेटालकी सीमा पार करके ट्रान्सवालमें दाखिल हुए। इस घटनाके साथ ही सत्याग्रहने अपने दूसरे चरण में प्रवेश किया। इस बार गिरफ्तार किये गये सत्याग्रहियोंको सख्त कैदकी सजाएँ दी गई। स्वयं गांधीजीको ट्रान्सवालकी सीमा में प्रवेश करने, और अपना पंजीयनपत्र न दिखा सकने के कारण दो-दो बार जेलकी सजा भोगनी पड़ी; वे अपना प्रमाणपत्र तो पहले ही आगको होम चुके थे। अक्तूबर १३, १९०८ को उन्हें दो महीनेकी, और फिर फरवरी २५, १९०९ को ३ महीनेकी जेलकी सजा हुई, और दोनों बार सख्त कैद मिली। गांधीजीने बादमें लिखा कि जेलमें रहते हुए वे "अपने-आपको ट्रान्सवालका सबसे सुखी आदमी" मानते थे । सामान्य अधिकारोंसे वंचित होकर अपमानजनक जीवन जीनेकी अपेक्षा वे जेल भोगना बेहतर समझते थे । 'इंडियन ओपिनियन' में जेलके अपने अनुभवोंके बारेमें लिखते हुए उन्होंने उन अनेक कष्टोंका जिक्र किया जो उन्हें अन्य भारतीय कैदियोंके साथ भोगने पड़े थे। उदाहरणार्थ, जेलमें खुराक अपर्याप्त और अनुपयुक्त थी। उन्होंने खुराकमें सुधारके लिए प्रार्थनापत्र दिये, और जो खुराक