पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 9.pdf/१४

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आठ

मिलती थी उसके प्रति असन्तोष और रोष व्यक्त किया, किन्तु किसी विशेष रियायतको केवल अपने लिए लेनेसे इनकार कर दिया । "कठोर कारावास" का मतलब कभी सड़क बनाना, कभी नगरपालिकाके वाटर वर्क्सकी सफाई करना, कभी सैनिकोंकी कब्रोंकी सुधराई करना, कभी जेलके फर्श और दरवाजोंको झाड़ना-पोंछना आदि होता था । गांधीजीने ये सब काम सहर्ष किये । एक बार उन्हें कैदियोंकी वर्दीमें अपना सारा सामान लादे हुए जोहानिसबर्ग रेलवे स्टेशनसे जोहानिसबर्ग जेल तक पैदल ले जाया गया । एक दूसरे मौकेपर वे चोर-डाकुओंकी तरह हथकड़ी पहनाकर गवाही देनेके लिए अदालत पैदल ले जाये गये । गांधीजीने अपने इन अनुभवोंकी बात बिना किसी प्रकारकी कटुता महसूस किये, बड़े शालीन और अक्सर बड़े ही पुरमजाक ढंगसे लिखी । इन अनुभवोंका उनपर अगर कोई असर हुआ तो यह कि तात्त्विक दृष्टिसे सोचनेका उनका स्वभाव और भी दृढ़ हो गया । किन्तु उनके साथ होनेवाले दुर्व्यवहारकी खबर एच० एस० एल० पोलकके द्वारा प्रकाशमें आई और दक्षिण आफ्रिका के समाचारपत्रोंमें इसकी बड़ी चर्चा हुई । परिणामतः ब्रिटेनकी संसदमें इसपर प्रश्न पूछे गये । अधिकारियोंने कैफियत दी कि गांधीजी किसी विशेष सुविधाके हकदार नहीं थे । सच तो यह है कि गांधीजीने किसी प्रकारकी विशेष सुविधाकी कभी भी इच्छा ही नहीं की । नवम्बर १९०८ में जब कस्तुरबा सख्त बीमार थीं, उस समय गांधीजीका उनके पास होना जरूरी था । वे स्वयं ऐसा चाहते भी थे । लेकिन उन्होंने जुर्माना देकर जेलसे रिहाई पाना स्वीकार नहीं किया ।

भारतीयोंका जन-आन्दोलन जारी रहा । धरना देना, विना परवाना फेरी लगाना और व्यापार करना, माँगनेपर पंजीयन-प्रमाणपत्र न दिखाना, अँगूठोंकी छाप देनेसे इनकार करना, और नेटालकी सीमा पार करके ट्रान्सवालमें प्रवेश-निषेधका उल्लंघन करना -- इन सभी रूपोंमें वह चलता रहा । संघर्षका एक नया और महत्त्वपूर्ण पहलू यह था कि जो भारतीय महिलाएँ अबतक रूढ़ियोंके कारण इन सब चीजोंसे अलग रहती आई थीं, वे भी आगे आईं, और सत्याग्रहका समर्थन करनेके लिए उन्होंने एक महिला संघकी स्थापना की । सरकारने आन्दोलनका जवाब गिरफ्तारी, जुर्माने और सख्त कैदकी सजा तथा निर्वासनकी नीति अपनाकर दिया । निर्वासितोंको ट्रान्सवालकी सीमासे बाहर निकालकर पुर्तगाली अधिकारियोंके सहयोगसे डेलागोआ-बेके रास्ते भारत भेज दिया जाता था । जून १९०९ तक जेल जानेवालोंकी संख्या २,५०० तक पहुँच गई थी । अपने अन्तिम चरणमें सत्याग्रह आन्दोलनमें एक नई बात यह पैदा हुई कि बहुत से प्रमुख भारतीय व्यापारियोंने अपना माल -असबाब तथा अन्य साधन-सामग्री अपने यूरोपीय साहूकारोंको सौंप देना बेहतर समझा, लेकिन व्यापारिक परवाने पानेके लिए अपने पंजीयन प्रमाणपत्र दिखानेकी अपमानजनक स्थिति स्वीकार करनेसे उन्होंने इनकार कर दिया । इसके फलस्वरूप उन्हें बहुत कष्ट उठाने पड़े, यहाँतक कि कुछ लोग तो दिवालिया हो गये। किन्तु फिर भी सत्याग्रही अपने न्यायोचित संघर्षके सारे परिणाम झेलनेके लिए तैयार थे ।

हॉस्केनकी अध्यक्षतामें संगठित यूरोपीय समिति यूरोपीयोंके एक ऐसे वर्गका प्रतिनिधित्व करती थी जो भारतीय समस्याके प्रति उदार दृष्टिकोण अपनानेका समर्थक था । इस समिति ने ट्रान्सवालकी सरकारको इस विषयमें अनेक निवेदनपत्र दिये और ब्रिटेनके अखबारोंमें पत्र प्रकाशित कराये । किन्तु इन प्रयत्नोंका कोई ठोस परिणाम नहीं निकला । तथापि धीरे-धीरे Gandhi Heritage Portal