पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 9.pdf/१३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।



९९
तुलसीकृत 'रामायण' का सार

लिए दुःख सहना -- कठिन लगता है । फिर भी ज्यों-ज्यों विचार करता हूँ, त्यों-त्यों सिवा सत्याग्रहके कोई दूसरा उपाय अपने अथवा किसी दूसरेके दुःखोंके [ निवारणके ] लिए सूझ नहीं पड़ता। मुझे तो ऐसा भी लगता है कि उसके सिवाय कोई सच्चा इलाज दुनियामें है ही नहीं । ऐसा हो या न हो, किन्तु हम तो अब यह समझने लगे हैं कि सत्याग्रहसे विजय पाना [ज्यादा ] ठीक रास्ता है । यदि बात ऐसी हो तो मैं आशा करता हूँ कि जो कुछ शुरू किया है उसे सारे भारतीय लगनके साथ पूरा करेंगे और हम फिरसे "आरम्भशूर"[१] की उपाधि पा जायेंगे ।

जो-जो राष्ट्र ऊँचे उठे हैं, उन्होंने पहले कष्ट सहन किये हैं, यह बार-बार स्मरण रखना चाहिए। यदि हम ऊँचे उठना चाहते हों, तो हमारे लिए भी यही उपाय है ।

हमें सोचना चाहिए कि नेटाल उद्योगपतियोंको जेल भेजकर हम सबने अपने सिरपर कितनी बड़ी जिम्मेदारी ले ली है। उनका अनुसरण करते हुए अपना सर्वस्व अर्पित कर देना बहुत बड़ी बात नहीं है । वे जेल अपने स्वार्थके लिए नहीं गये हैं।

जो भारतीय जेल जाते हैं उन्हें समझना चाहिए कि इससे उन्हें कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं साधना है। यह ध्यानमें रखना चाहिए कि जेल जानेपर भी शायद वे ट्रान्सवालमें न रह सकें। सभी को कुछ बलिदान करके समाजके लाभ, सम्मान और नामकी रक्षा करनी है ।

इस संघर्ष में हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, बंगाली, मद्रासी, गुजराती, पंजाबी - इस प्रकारके भेद नहीं हैं। हम सभी भारतीय हैं और भारतके लिए लड़ रहे हैं । जो ऐसा नहीं समझता, वह देशका सेवक नहीं, शत्रु है ?

मैं हूँ सत्याग्रही,
मोहनदास करमचन्द गांधी

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १७-१०-१९०८

५६. तुलसीकृत 'रामायण' का सार

[२]

[ अक्तूबर १४, १९०८ के पूर्व ]

आजकल भारतीय प्रजाके पुत्र विदेश यात्रा बहुत खयाल रखना सबके लिए कठिन होता । परन्तु, हिन्दुओंके लिए तो और भी कठिन है । लेखकका मत है कि साधारण हिन्दू धर्मका रहस्य जानना केवल सब हिन्दुओंका ही नहीं, सारे भारतीयोंका काम है ।

साधारण हिन्दू धर्म सबको मान्य होने लायक है। उसका रहस्य नीतिमें समाया हुआ है । इस दृष्टिसे कहा जा सकता है कि सभी धर्म सच्चे और समान हैं, क्योंकि नीतिसे अलग कोई धर्म हो ही नहीं सकता ।

  1. जान पड़ता है मूलमें 'नहीं' शब्द प्रेसकी भूलसे छूट गया है जिसके बिना आरम्भशूर शब्दका प्रयोग यहाँ ठीक नहीं बैठता ।
  2. यह इंडियन ओपिनियन के विज्ञापन-स्तम्भमें प्रकाशित हुआ था । इसका मसविदा गांधीजीका तैयार किया जान पड़ता है। स्पष्टतः, यह और आगेके दो लेख गांधीजीने १४ अक्तूबरसे पहले ही लिख लिये होंगे, क्योंकि उसी दिन उनपर मुकदमा चलाया गया और उन्हें दो महीनेकी सजा दी गई ।