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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मशविरा करनेके बाद, अपने देशवासियोंको यह सलाह देने की जिम्मेदारी मैंने अपने ऊपर ले ली है कि वे इस कानून द्वारा थोपे गये बुनियादी बन्धनोंको तो स्वीकार न करें पर कानून मानकर चलनेवाली प्रजाकी तरह इसके उल्लंघनके फलस्वरूप मिलनेवाली सजाको स्वीकार कर लें। बात सही हो या गलत, पर अन्य एशियाइयोंकी भाँति मेरा भी यही विचार है कि और बातोंके साथ-साथ यह कानून हमारे अन्तःकरणको चोट पहुँचाता है । और मुझे लगा -- आज भी मुझे ऐसा ही लगता है कि इस कानूनके बारेमें अपनी भावना प्रकट करनेका एशियाइयोंके सामने केवल एक यही मार्ग रह गया है कि वे इसके अन्तर्गत दी गई सजाको स्वीकार करते चलें; और मैं मानता हूँ कि मैंने उस नीति के अनुसार इससे पहले आनेवाले अभियुक्तोंको इस कानून के आगे सिर झुकाने से इनकार करनेकी सलाह दी थी। मैंने उनको १९०८ के कानून ३६ के बारेमें भी यही सलाह दी थी। सो इसलिए कि ब्रिटिश भारतीयोंकी राय में, सरकारने जितनी राहत देनेका वचन दिया था, उतनी दी नहीं गई । अब मैं न्यायालयके हाथमें हूँ और वह जो सजा दे, मुझे स्वीकार्य होगी | अभियोक्ताओं और जनता सभीने मेरे साथ जो शिष्टाचार बरता है, उसके लिए मैं उनको धन्यवाद देता हूँ ।

श्री भेजने कहा कि इस मामले को दूसरे मामलोंसे भिन्न मानना चाहिए। उन्होंने कहा, चूंकि श्री गांधीने स्वयं स्वीकार किया है कि उनका अपराध अन्य अभियुक्तोंसे अधिक है, इसलिए उनको अधिकतम दण्ड (१०० पौंड जुर्माना या तीन महीने का सपरिश्रम कारावास ) दिया जाना चाहिए ।

मजिस्ट्रेटने श्री गांधीको दोषी करार दिया। उन्होंने अपना निर्णय देते हुए कहा कि धर्मके आधारपर उठाई गई आपत्तियोंके प्रश्नपर विचार करना मेरा काम नहीं है । मेरा काम तो केवल कानूनके मुताबिक काम करना है। कानूनका आम तौरपर उल्लंघन किया गया है। श्री गांधीको उस रूप में देखनेका मजिस्ट्रेटने आज बड़ा दुःख माना, और कहा कि फिर भी उनमें और अन्य अभियुक्तों में अन्तर किया जाना जरूरी है । मजिस्ट्रेटने श्री गांधीको २५ पौंड जुर्माने या दो महीने की सपरिश्रम कारावासकी सजा दी।

बेशक किसीने भी जुर्मानेकी राशि अदा नहीं की और सभी मुसकराते हुए जेल चले गये। श्री गांधी विशेष प्रसन्न थे ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १७-१०-१९०८