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९३. मेरा जेलका दूसरा अनुभव[३]

हमें जितना बने उतना काम ईमानदारीके साथ करने को कहा गया था । जो काम हमें सौंपा गया था वह भी हलके किस्मका था। नगरपालिकाकी जमीनमें, आम रास्तेके पास ही, गड्ढे खोदने और भरने थे । इसमें विश्राम मिल सकता था। लेकिन, मुझे अनुभव हुआ कि यदि केवल ईश्वर ही हमारे कामका साक्षी हो तो हम कामचोर सिद्ध होते हैं, क्योंकि लोगोंके काममें मुझे ढिलाई नजर आई ।

मेरा यह निश्चित मत है कि ऐसी कामचोरी हमारे लिए कलंककी बात है । और हमारी लड़ाई में जो शिथिलता आई है, उसका कारण भी यही है । सत्याग्रहका रास्ता जितना आसान है उतना ही कठिन भी है। हमारी नीयत सच्ची होनी चाहिए। हमें सरकारसे वैर नहीं है। हम सरकारको अपना दुश्मन नहीं मानते। हम सरकार से लड़ते हैं, उसका कारण यह है कि हम उसकी भूल सुधारना चाहते हैं और उसकी बुरी आदत छुड़ाना चाहते हैं । हम उसका बुरा नहीं चाहते। उसके खिलाफ लड़ने में भी हमारा उद्देश्य उसकी भलाई ही है । इस दृष्टिसे तो हमें जेलमें अपनी शक्तिके अनुसार काम करना ही चाहिए। और यदि हम यह मानते हों कि हमें नीति अनुसार काम करने की जरूरत नहीं है, तो सन्तरीकी हाजिरी में जो पूरा काम करते हैं, वह नहीं करना चाहिए। यदि काम करना उचित नहीं है, तो हमें सन्तरीकी परवाह न करके उसकी मुखालफत करनी चाहिए, और उसके फलस्वरूप यदि हमारी सजा बढ़ती हो तो उसे भोग लेना चाहिए । लेकिन ऐसा तो कोई भारतीय मानता नहीं । जो काम नहीं करते वे मात्र आलस्य और कामचोरीके कारण ही ऐसा करते हैं । ऐसा आलस्य और ऐसी चोरी हमें शोभा नहीं देती । सत्याग्रहीके नाते, हमें जो काम मिले, करना ही चाहिए। और यदि हम सन्तरीका डर रखे बिना काम करें, तो हमें तकलीफ न उठानी पड़े। अपनी शक्तिके बाहर काम करने की तो बात ही नहीं रहेगी । कामचोरीकी इस देवके कारण जेलमें लोगोंको कुछ कष्ट भोगना पड़ा था ।

इतना कहने के बाद अब मैं फिर कामकी बातपर आता हूँ । इस तरह दिन-प्रति-दिन हमारा काम हलका होता गया। मैं जिस टोलीमें गया था उस टोलीको बादमें जेलका बगीचा साफ करने और उसमें बुवाई आदि करनेका काम मिला। इसमें मुख्यतः मकई बोने, आलूकी क्यारियाँ साफ करने और उनके पौधोंपर मिट्टी चढ़ानेका काम था ।

फिर दो दिन हमें नगरपालिकाका तालाब खोदने के लिए ले गये । उसमें खोदने, मिट्टीका ढेर लगाने और फिर उसे ठेलागाड़ी में भरकर ले जानेका काम था । यह काम सख्त था। इसका अनुभव सिर्फ दो दिन मिला। मेरा पहुँचा सूज गया, जो मिट्टीके उपचारसे अच्छा हुआ ।

यह जगह चार-पाँच मील दूर थी, इसलिए हमें ठेले (ट्रॉली) में ले जाते थे । अपनी रसोई हमें वहीं तालाबपर पकानी पड़ती थी । इसलिए खानेका कच्चा सामान और लकड़ी भी साथ में ले जाते थे। इससे भी ठेकेदारको सन्तोष नहीं हुआ। हम काफिरोंकी बराबरी न कर सके। दो दिन तालाबपर काम करानेके बाद हमें दूसरा काम सौंपा गया । आजतक